Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 432
________________ ..܀ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण का घात करने वाले कर्म घाती कहलाते हैं । वे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, चार हैं । चतुर्गति - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति । चतुर्दशपूर्व -- उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद अस्ति नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्म-प्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, अवध्यपूर्व, प्राणायुप्रवाद, क्रिया विशाल, लोकबिन्दुसार ये चौदह पूर्व दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत हैं । चतुरंगिनी सेना -- हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की सेना । चतुर्थ भक्त - - उपवास, चार प्रकार के आहार का त्याग । चतुष्क- चत्वर - जहां पर चार मार्ग मिलते हों । चारण ऋद्धिधर - जंघाचारण व विद्याचारण मुनिराज । जंघाचारण लब्धि - यह लब्धि अष्टम तप करने वाले मुनि को प्राप्त होती है । जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार से तिर्यक् दिशा की एक ही उडान में वह तेरहवें रुचकवर द्वीप तक पहुँच सकता है । पुन: लौटता हुआ वह एक कदम आठवें नन्दीश्वर द्वीप पर रखकर दूसरे कदम में जम्बूद्वीप के उसी स्थान पर पहुँच सकता है जहाँ से वह चला था । यदि वह उडान ऊर्ध्व दिशा की ओर हो तो एक ही छलांग में वह मेरु पर्वत के पाण्डुक उद्यान तक पहुँच सकता है । और पुन: लौटते समय एक कदम नन्दनवन में रखकर दूसरे कदम में जहां से चला था वहां पहुँच सकता है । विद्याचारण लब्धि - यह दिव्य शक्ति षष्ठभक्त (बेला) तप करने वाले भिक्षु को प्राप्त हो सकती है। श्रुत विहित ईषत् उपष्टम्भ से दो उड़ान में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक पहुँचा जा सकता है । प्रथम उड़ान में मानुषोत्तर पर्वत तक जाया जा सकता है । पुनः लौटते समय एक ही उडान में मूल स्थान पर आया जा सकता है । इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा में दो उड़ान में मेरु तक और पुनः लौटते समय एक ही उड़ान में प्रस्थान-स्थान तक पहुँचा जा सकता है । चारित्र - आत्म-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला सम्यक् आचरण च्यवन-मरण, देवगति का आयुष्य पूर्ण कर अन्य गति में जाना । च्यवकर - च्युत होकर, देवलोक से निकलकर । जैन साहित्य में यह शब्द उन आत्माओं के लिए प्रयुक्त होता है जो देव आयुष्य पूर्ण कर मानवादि अन्य योनि में जन्म धारण करती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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