Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 430
________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण कुत्रिकापण -- तीनों लोकों के सभी प्रकार के पदार्थ जहां पर प्राप्त होते हों उसे कुत्रिकापण कहते हैं । इस दुकान की विशेषता यह है कि जिस वस्तु का मूल्य साधारण व्यक्ति से पांच रुपया लिया जाता है, इब्भ- श्रेष्ठी आदि से उसी का मूल्य एक हजार रुपया और चक्रवर्ती आदि से एक लाख रुपया लिया जाता है। दुकानदार किसी व्यंतर विशेष को अपने अधीन कर लेता है । वही उनकी व्यवस्था करता है। कितनों का यह भी अभिमत है कि ये दुकानें वणिक रहित होती हैं । व्यन्तर ही इन दुकानों को चलाते हैं । ३६८ कर्म निर्जरा - कर्मों को नष्ट करने का प्रकार । कर्बट -- छोटी दीवार से परिवेष्टित शहर । कर्म उदीरणा- जो कर्म सामान्यतः भविष्य में फल देने वाले हैं उन्हें तपादि द्वारा उसी समय उदय में फलोन्मुख कर झाड़ देना । कला - जैन शास्त्रों में पुरुषों के लिए बहत्तर और स्त्रियों के लिए ६४ बताई गई हैं । देखिए, ऋषभदेव एक परिशीलन का परिशिष्ट - १-२ कषाय - क्रोध, मान, माया, और लोभ । कुमारवास - कुंवर रूप में रहना । केवलज्ञान - केवलदर्शन - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घनघाती कर्मों का क्षय होने पर समस्त पदार्थों के भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानकाल के पर्यायों को हस्तामलकवत् जानना, केवलज्ञान है । इसी तरह उक्त पर्यायों को उक्त रूप से देखने की शक्ति का प्रकट होना 'केवल दर्शन' है । केवल का अर्थ अद्वितीय है । जो अद्वितीय केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक होते हैं, वे केवली, जिन, अर्हत् अरिहंत, सर्वज्ञ सर्वज्ञदर्शी आदि कहलाते हैं । कौतुक - मंगल-रात्रि में आये हुए दुःस्वप्नों के फल के निवारण हेतु तथा शुभ शकुन के लिए चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का तिलक आदि करना कौतुक है । सरसों दही आदि मांगलिक वस्तुओं का प्रयोग मंगल है | क्षीरसमुद्र – जम्बूद्वीप को आवेष्टित करने वाला पाँचवां समुद्र, जिसमें दीक्षा ग्रहण के समय तीर्थंकरों के लुचित - केश इन्द्र द्वारा विसर्जित किये जाते हैं । खादिम --- मेवा आदि खाद्य पदार्थ खेड -- जिस गाँव के चारों ओर धूली का प्राकार हो । अथवा नदी और पर्वतों से वेष्टित नगर | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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