Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 428
________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण अन्तराय कर्म- जो कर्म उदय में आने पर प्राप्त होने वाले लाभ आदि में बाधा उपस्थित करते हैं अपवर्तन - कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग - फलनिमित्तक शक्ति में हानि । अभिगम - श्रमण के स्थान में प्रविष्ट होते ही श्रावक द्वारा आचरण करने योग्य पांच विषय हैं - ( १ ) सचित्त द्रव्यों का त्याग ( २ ) अचित्त द्रव्यों की मर्यादा करना, (३) उत्तरासंग करना, (४) साधु दृष्टिगोचर होते ही करबद्ध होना । (५) मन को एकाग्र करना । अभिग्रह - प्रतिज्ञा विशेष अरिहन्त - राग-द्वेष रूप शत्रुओं को पराजित करने वाले सशरीर ३६६ परमात्मा । अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा के द्वारा रूपी द्रव्यों को जानना । अवसर्पिणी काल - कालचक्र का वह विभाग जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाते हैं। आयु और अवगाहना कम होती जाती है । उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार तथा पराक्रम का ह्रास होता है । इस समय में पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी हीन होते जाते हैं । शुभ भाव घटते हैं और अशुभ भाव बढ़ते हैं । इसके छ: विभाग हैं - १ सुषमसुषम, २ सुषम, ३ सुषम-दुषम, ४ दुःषम- सुषम, ५ दुःषम, और ६ दुःषमदुःषम । असंख्य प्रदेशी - वस्तु के अविभाज्य अंश को प्रदेश कहते हैं । जिसमें ऐसे प्रदेशों की संख्या असंख्य हो, वह असंख्यप्रदेशी कहलाता है । प्रत्येक जीव असंख्य प्रदेशी होता है । आगार धर्म - गृहस्थधर्म (अपवाद सहित स्वीकृत व्रत चर्या) आतापना - ग्रीष्मं शीत आदि से शरीर को तापित करना । आरा- काल विभाग आर्तध्यान -- प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में चिंतित रहना । आशातना -- गुरुजनों पर मिथ्या आक्षेप करना, उनकी अवज्ञा करना । आश्रव - कर्म को आकर्षित करने वाले आत्म-परिणाम । कर्मों के आगमन का द्वार उत्सर्पिणी - कालचक्र का वह विभाग, जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम की वृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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