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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
लौटकर उन्होंने कर दिखाया। मांसाहार मानवीय प्रकृति नहीं, अपितु दानवीय व्यवहार है। हृदय की क रता का प्रतीक है। भयंकर पाप है। जब आप किसी मरते जीव को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मारने का आपको क्या अधिकार है ? पैर में लगा जरा-सा कांटा जब हमें बैचेन कर देता है तो जिनके गले पर छुरियां चलती हैं उन्हें कितना कष्ट होता होगा ! एतदर्थ किसी जीव की हिंसा न करना ही श्रेयस्कर है।। ___ विचारशील व्यक्तियों को भूल महसूस हुई कि वस्तुतः हम सही मार्ग पर नहीं है, हमें अपनी स्वादलोलुपता के लिए दूसरे प्राणियों के साथ खिलवाड नहीं करनी चाहिए। ___श्रीकृष्ण आदि ने अरिष्टनेमि को समझाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सके । यदुवंशी और भोगवंशी कोई भी उन्हें अपने लक्ष्य से च्युत न कर सके।
यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि विवाह से लौटकर वे सीधे ही शिविका में बैठकर प्रव्रज्या के लिए प्रस्थित नहीं होते हैं, अपित एकवर्ष तक गृहवास में रहकर वर्षीदान देते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में अत्यन्त संक्षिप्तशैली अपनाने के कारण सारथी को आभूषण देने के पश्चात् तुरन्त ही अगली गाथा में दीक्षा का वर्णन कर दिया गया है किन्तु वस्तुतः भावार्थ वैसा नहीं है, क्योंकि उत्तराध्ययन को सुखबोधा वृत्ति में, त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, और भव-भावना आदि ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि बाद में उन्होंने वर्षीदान दिया । दूल्हा बनने के पूर्व उन्होंने वर्षीदान नहीं दिया था। किन्तु आश्चर्य
८७. हरिवंशपुराण ५५।१०७, पृ० २२६ ८८. (क) एत्यंतरे दसारचक्केण विरइयकरंजलिणा भणितो-नेमी
कुमार ! तए संपइ चेव परिचत्तस्स जायववग्गस्स अत्थमइ व्व जियलोओ, ता पडिच्छाहि ताव कंचि कालं । ततो उवरोह सीलयाए संवच्छरियमहादाण निमित्त च पडिवन्नं संवच्छरमेत्तमवत्थाणं । भयवया तप्पभितिं च आढत्त किमिच्छियं महादाणं ।...""पडिपुण्णे य संवच्छरे आपुच्छि ऊण अम्मापियरो......"
-उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति पृ० २८०
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