Book Title: Bhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 417
________________ हरिवंश : परिशिष्ट २ ३८५ कुछ समय के पश्चात् वीरक भी मरकर बाल तप के कारण सौधर्मकल्प में किल्विषी देव बना। विभंगज्ञान से देखा कि मेरा शत्र 'हरि' अपनी प्रिया 'हरिणी के साथ अनपवयं आयु से उत्पन्न होकर आनन्द क्रीड़ा कर रहा है। वह ऋद्ध होकर विचारने लगा-क्या इन दुष्टों को निष्ठुरतापूर्वक कुचल कर चूर्ण कर दू? मेरा अपकार करके भी ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए हैं। मैं इस प्रकार इन्हें मार नहीं सकता। यौगलिक निश्चित रूप से मर कर देव ही बनते हैं, भविष्य में ये यहां से मरकर देव न बनें और ये अपार दुःख भोगे ऐसा मुझे प्रयत्न करना चाहिए। उसने अपने विशिष्ट ज्ञान से देखा--भरतक्षेत्र में चम्पानगरी का नरेश अभी-अभी कालधर्म को प्राप्त हुआ है अतः इन्हें वहां पहुँचा दू क्योंकि एकदिन भी आसक्तिपूर्वक किया गया राज्य दुर्गति का कारण है फिर लम्बे समय की तो बात ही क्या है ? देव ने अपनी देवशक्ति से हरि-यूगल की करोड़ पूर्व की आयू का एक लाख वर्ष में अपवर्तन किया और अवगाहना (शरीर की ऊँचाई) को भी घटाकर १०० धनुष की कर दी। देव उनको उठाकर वहां ले गया, और नागरिकों को सम्बोधित कर कहा-आप राजा के लिए चिन्तित क्यों हैं, मैं तुम्हारे पर करुणा कर राजा लाया हूँ। नागरिकों ने 'हरि' का राज्याभिषेक किया। सप्त व्यसन के सेवन करने के कारण वे नरक गति में उत्पन्न हए। यौगलिक नरक गति में नहीं जाते, पर वे गए, इसलिए यह घटना जैन साहित्य में आश्चर्य के रूप में उट्टङ्कित की गई है। राजा हरि की जो सन्तान हुई वह हरिवंश के नाम से विश्रु त हुई। २. पुव्वकोडीसेसाउएसु तेसि वेरं युमरिऊण वाससयसहस्सं विधारेऊण चम्पाए रायहाणीए इक्खागम्मि चन्दकित्तिपत्थिवे अपुत्त वोच्छिण्णे नागरयाणं रायकंखियाणं हरिवसिसाओ तं मिहणं साहरइ....... कुणति य से दिव्वप्पभावेण धणुसयं उच्चत्त । -वसुदेवहिण्डी खं० १ भाग २, पृ० ३५७ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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