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अरिष्टनेमिः पूर्वभव
उसी समय दूसरे एक नगर अरिञ्जय पुर के राजा का नाम अरिञ्जय था। उसके एक पुत्री थी, जिसका नाम प्रीतिमती था। प्रीतिमती का रूप ही सुन्दर नहीं था अपितु वह सभी विद्याओं में पारंगत भी थी। वह उत्कृष्ट तप करना चाहती थी अतः उसने अपने पिता से कहा कि मुझे इच्छित वर दीजिए। .. पिता ने कहा-तप के अतिरिक्त तू जो भी वस्तु चाहे, वह मांग सकती है ?४ उसने कहा-तो फिर जो गतियुद्ध में मुझे पराजित करे उसी को आप मुझे दें, अन्य को नहीं। पिता ने कहा'तथास्तु'। उसके विवाह के लिए स्वयंवर की रचना की गई।१६ सहस्रों विद्याधर उपस्थित हुए । चिन्तागति, मनोगति, और चपलगति-ये तीनों भाई भी वहाँ पहुँचे। सभी विद्याधरों ने विचार किया-प्रीतिमती विद्या में हमसे अधिक प्रवीण है और हम उसे गति युद्ध में भी जीत नहीं सकते । अतः वे सभी चूप बैठे रहे किन्तु चिन्तागति, मनोगति, और चपलगति गतियुद्ध के लिए तैयार हुए पर वे उससे पराजित हो गये । ८ ___ आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि चिन्तागति ने प्रीतिमती को जीत लिया। जब वह चिन्तागति के गले में वरमाला डालने लगी तब चिन्तागति ने उससे कहा-यह वरमाला मेरे छोटे भाई के गले में डाल, क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए तूने प्रथम उससे गति-युद्ध
६३. हरिवंशपुराण ३४।१८-१६, पृ० ४२० ६४. कन्याकूत विदूचे स वृणीष्व वरमीप्सितम् । तपसोऽन्यमितीदं च श्रुत्वाऽह प्रीतिमत्यपि ॥
-हरिवंशपुराण ३४।२०। पृ० ४२० ६५. तपो वरप्रसादो मे पितर्यदि न दीयते । गतियुद्ध विजेत्रे ऽहं देयेत्येष वरोऽस्तु मे ॥
-हरिवंशपुराण ३४।२१, पृ० ४२० १६. हरिवंशपुराण ३४।२२ ६७. हरिवंशपुराण ३४।२६, पृ० ४२१ ६८. हरिवंशपुराण ३४।२८-२९, पृ० ४२१
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