Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 8
________________ पुरोहित विश्वभूति । संदेशा ही ले आया ! मोक्ष-सुंदरी मन वसी है ! अच्छा है, जाओ! लेकिन उसे पाना कुछ हंसी ठठ्ठा नहीं है। इसलिए मैं तो यही कहूंगी कि अभी कुछ दिनों और घरमें रहकर संयमीनीवन व्यतीत करनेका अभ्यास करलो ! निनदीक्षा ग्रहण करना दुईर कठिन मार्गमें पग बढ़ाना है. सो विचार लीजिए। विश्व०-प्रिये ! मैं देखता हूं, तुम मोहके गहरे भ्रममें पड़ी हुई हो । तुम्हारे ममता भाव मुझे छोड़ना नहीं चाहते ! संसारी जीवकी ऐसी ही भ्रमालु बुद्धि है। इसी कारण वह संसारमें अनेकों दुःख उठाता है । चाहता है, बालूको पेलकर तेल निकालना ! लेकिन क्या यह साध्य है ? __अनु-नहीं साहब, यह कुछ भी साध्य नहीं है ! सारी दुनिया बेवकूफ है, गार्हस्थ्य जीवनमें रहना बुरा काम है । जाइये, मैं नहीं रोकती-आप बाबाजी बन जाइये और सारी दुनियांको बना लीजिये। मेरी बलासे-तब ही कुछ पतेकी मालूम पड़ेगी ! मेरा कहना तो मूल्का बकवाद समझते हो, पर जब दुनियां जो संसारमें रहकर आनंद उठा रही है आपको टकासा जवाब देदेगी तब होश लाइयेगा! विश्व०-अरे, इसमें कौनसी बात बुरे माननेकी है । मैं तो खुद कहता जाता हूं कि संसारके लोग भ्रममें पड़े हुये हैं । जैसे कत्ता हड्डीको चूस २ कर अपने मुंहको लहूलुहान कर लेता है, वैसे ही यह संसारी प्राणी दुनियांकी मौन शौकमें फंसा हुआ अपना सत्यानाश करता है । सुख पानेकी लालसासे खाना पीना मौज उड़ाना आवश्यक समझता है, परन्तु वास्तवमें इस मार्गसे वह कभी भी सच्चे सुखको नहीं पाता ! कुत्तेकी तरह अपनी ही

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