Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 6
________________ pag २००० श्री पार्श्वनाथाय नमः | भगवान पार्श्वनाथ | (?) पुरोहित विश्वभूति ! " जरा मौतकी लघु वहिन, यामें संशै नाहि । तौभी सुहित न चितवें, बड़ी भूल जगमांहिं ॥ " विश्वभूति- प्रिये, इस असार संसार में भ्रमते अनादिकाल होगया ! विषयतृष्णाको बुझानेके लिये अनेकानेक प्रयत्न किये ! पांचों इन्द्रियों के विषयसुखमें तल्लीन रहकर युगसे बिता दिये ! स्वर्गौके सुख भी भोगे, चक्रवर्तियों की अपूर्व सम्पत्तिका भी उपभोग किया ! परन्तु इस विषयतृष्णाकी तृप्ति नही हुई ! सच्चे सुखका आस्वाद नहीं मिला ! इस भव-वनमें भटकते हुए सौभाग्यसे यह मनुष्य जन्म और उत्तम कुल मिल गया; सो भी यूंही इन्हीं विषयवासनाओं को भोगते हुए - भोगोपभोगकी मरीचिका में पड़े हुये विता दिया ! न यह देख प्रिये ! यह सफेद बाल मानो मुझे सचेत करने को नजर आगया है ! अनूदरि - वाह ! एक सफेद बालको देखकर प्रिय, क्यों इतने भयभीत होते हो ? माना कि संसार असार है-उसमें कुछ भी सार नहीं ! लेकिन प्यारे ! इसी संसारमें रहकर ही आप अपने उद्देश्यको

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