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सम्पादकीय
जयाचार्य में मति, बुद्धि और प्रज्ञा की त्रिवेणी प्रवाहित थी। केवल मनन और केवल बुद्धि यथार्थता का स्पर्श करती है, पर उसके पार तक नहीं पहुंच पाती। पार-दर्शन का माध्यम है अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा। जयाचार्य ने अपनी प्रज्ञा से सत्य का अनुभव किया और उसे वाङ्मय में नियोजित किया। उनकी अन्तर्भाषा है प्रज्ञा और बाहर की भाषा है राजस्थानी। उन्होंने बहुत लिखा। सत्य को बहुत अभिव्यक्ति दी। कोई भी व्यक्ति जितना जानता है, जितना देखता है, उतना उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता । अनुभूति और अभिव्यक्ति-ये दो स्तर भिन्न-भिन्न हैं। जयाचार्य की अनुभूति प्रबल थी, इसलिए अभिव्यक्ति में भी प्रबलता आ गई। अब तक उनकी वाणी बहुत कम प्रकाश में आई थी। वह केवल हस्तलिपियों के भंडार में सुरक्षित पड़ी थी। वह जन-जन तक पहुंच सके, ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकी। हम उपादान और निमित्तदोनों में विश्वास करते हैं। उपादान होने पर भी यदि निमित्त न मिले तो क्रियान्विति नहीं हो सकती। जयाचार्य की निर्वाण-शताब्दी एक निमित्त बना उनके साहित्य को जनता तक पहुंचने का।
लगभग तीन दशकों से हमारे धर्मसंघ में साहित्य की अजस्र धारा बही है। उसमें चार बड़े कार्य संपन्न हुए हैं
१. आगम साहित्य का सम्पादन २. तेरापंथ द्विशताब्दी का साहित्य ३. कालूगणी की जन्म शताब्दी का साहित्य ४. जयाचार्य का साहित्य
आचार्यश्री तुलसी के सुदीर्घ शासनकाल में मेरुदंड जैसे कार्य सम्पन्न हुए और हो रहे हैं। आचार्यश्री प्रेरणा के स्रोत हैं । वे नए-नए आयाम उद्घाटित करना चाहते हैं । ये सारे कार्य अधिकांशतया साधु-साध्वियों के श्रम से सम्पन्न हुए हैं। किंचित् मात्रा में गृहस्थ विद्वानों का भी योग रहा है। हमारा साधु-साध्वी समाज अध्ययननिष्ठ होने के साथ-साथ अनुशासननिष्ठ और श्रमनिष्ठ भी है। यही हमारे कार्य की सुविधा है। इस सुविधा के अभाव में ये सारे श्रमसाध्य सम्पादन के कार्य अल्प अवधि में सम्पन्न नहीं किये जा सकते थे।
जयाचार्य के साहित्य सम्पादन का कार्य बहुत बड़ा है। उनके साहित्य की सूची काफी बड़ी है
१. जयाचार्य-वाङमय
चयनिका
१. जय अनुशासन (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती)
साधना
२. आराधना
साहित्य
३. उपदेशरत्नकथाकोश (अनुमानित दस खण्ड) ४. आख्यान-संग्रह (दोखण्ड) ५. संस्मरण
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