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वेद में मगध को आर्य सीमा से बाहर इस वेद में मगध को त्रात्यों का अर्थात्
सभ्य जाति ।
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अथर्ववेद में व्रात्यों का प्रिय धाम प्राची दिशा को बताया है | यहां मगध ( बङ्गाल - बिहार - उड़ीसा) की ओर संकेत किया गया है । श्रमण संस्कृति में व्रत धारण करने के कारण श्रमणों को व्रात्य कहा गया है व्रात्य अर्थात् व्रत धारण करने वाले । इस लिए जैन-निर्ग्रथ तथा श्रावक थे । ये ब्राह्मण वेदों को प्रमाण नहीं मानते थे । याग-यज्ञ और पशुहिंसा का रिवोध करते थे । तपस्या से ग्रात्म-शोधन में विश्वास.. करते थे। इस लिये इन को व्रात्य कहा गया है। क्योंकि जैनधर्म के संचालक चौवीस तीर्थकर सभी क्षत्रीय थे इस लिये यहां के क्षत्रियों को भी वैदिक आर्यों ने " व्रात्य क्षेत्रीय " के नाम से व्यंग रूप से वर्णशंकर के अर्थ रूप में संबोधन किया है । तथा चारों वरणों के लोग जैनधर्म के अनुयायी थे और वैदिक आयों के के विरोधी थे इसी लिए वैदिक आर्यों ने इन्हें अप-ब्राह्मण अथवा अप क्षत्रीय अनार्य, व्रात्य इत्यादि संबोधन किया है । क्योंकि बौद्धधर्म जैनधर्म से नवीन और वेद रचना काल से भी पीछे पैदा हुआ था । इस लिये वेदों में जिन्हें व्रात्य के नाम से उल्लेख किया गया है वे जैन निर्बंध और जैन श्रावक ही थे जो कि भारत के प्राचीनतम धम के अनुयायी थे ।
याग यज्ञ और पशुहिंसा क्षत्रीयबन्धु ब्राह्मणबन्धु,
हमारी इस धारण की पुष्टि के लिये अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। यहां पर मात्र एक प्रमाण दे कर ही इस विवेचन को समाप्त करते हैं।
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सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्मानुयायी था और वह व्रात्यक्षेत्रीय जाति से था जैन तथा बौद्ध साहित्य के अनुसार वह शुद्धक्षत्रीय वंशोद्भव था । परन्तु ब्राह्मण पुराण एवं साहित्यकारों ने इसे मुरा नामक एक शुद्रा स्त्री का पुत्र होने का उल्लेख किया है । प्रो० सी० डी० चटर्जी ने इस प्रश्न पर विस्तार पूर्वक दशि विदेवन किया है । 'मुरा' के अस्तित्व को ये निरा कपोल कलित मानते है और 'मोरिय' नाम के क्षत्रियकुल में ही इस का उत्पन्न होना सिद्ध करते हैं । ( अनुवादक )
वर्णन किया है और वर्णशंकरों का केन्द्र