Book Title: Bangal Ka Aadi Dharm
Author(s): Prabodhchandra Sen, Hiralal Duggad
Publisher: Vallabhsuri Smarak Nidhi

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Page 60
________________ ४६ प्रसार प्राप्त न कर सका था । अतएव जैन और आजीवक धर्मों को ही बंगाल के आदि धर्म स्वीकार करना होगा । हम पहले कह आये हैं कि उत्तरवर्ती काल में आजीवकधर्म संभवतः जैनधर्म में मिल गया था। इस लिये ईसा की सातवीं शताब्दी में ह्य सांग ने बंगालदेश में आजीवक संप्रदाय को नहीं देखा था किन्तु निग्रंथों का ही यथेष्ट प्रभाव देखा था। अतएव ईसा पूर्व छठी शताब्दी से वर्धमान-महावीर के समय से लेकर ईसा की सातवीं शताब्दि ह्य सांग के समय तक इन तेरह अतः इस 'बंगाल का आदि धर्म" लेखक का यह लिखना कि "वैदिक-धर्माभिमानी आर्य लोगों ने विदेह, अंग तथा मगध के निवासियों की जो अवज्ञा की थी उस के प्रतिवाद तथा प्रतिक्रिया से ही जैन श्रादि तीनों धर्म उत्पन्न हुए या नहीं इस विषय का उल्लेख ऐतिहासिक लोग ही कर सकते है इत्यादि। इस बात को लक्ष्य में रखते हुए हम ने यहां पर इस विषय को ऐतिहासिक विद्वानों के जैनधर्म की प्राचीनता सम्बन्धी संक्षिप्त उद्धरण दे कर यह बात स्पष्ट करना उचित समझा है कि जैनधर्म का आविर्भाव वैदिकधर्म के अभिमानी आर्य लोगों की अवज्ञा के प्रतिवाद तथा प्रतिक्रिया से उत्पन्न नहीं हुअा। किन्तु इस अत्यंत प्राचीनतम भारतीय जैनधर्म ने वैदिक अायों द्वारा मानव-बली तथा पशु-बली की पैशाचिक वृत्ति का प्रबल विरोध करके उसे भी परिष्कृत करने का भगोरथ प्रयत्न कर के भारत की पवित्र भूमि को कलंकित होने से सदा के लिये सुरक्षित किया। भारत गोरव स्वर्गवासी लोकमान्य तिलक ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि वैदिक ब्राह्मणधर्म पर अहिंसा की गहरी छाप जैनधर्म ने ही डाली है। अतः यह कह सकते हैं कि भारतीय प्राचीन आर्य संस्कृति के अन्तिम श्वास लेते समय उसे संजीवनी-दाता भगवान महावीर ही थे । मानव संसार को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले परमगुरु महावीर ही थे । बलिदान की जलती ज्वालाओं

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