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अर्थात् - इस कल्पसूत्र में ऐसा वर्णन है कि सुस्थित सुप्रतिबुद्ध आचार्य के दूसरे शिष्य प्रियग्रंथ स्थविर ने मध्यमा शाखा स्थापित की ।
पांचवां लेख :
सं० ४७, ग्र० २, दि० २० एतस्यां पूरवाये चारणे गणे, पेतिधम्मिक (कुल) वाचकस्य, रोहणं दिस्य सीसस्य सेनस्य निर्वतणं, सावक दर........... ........491 (f) Fal........... ✯
अर्थ ; - संवत् ४७, ग्रीष्म काल का दूसरा महीना, मिति २० को चारण गरण, पेतिधम्मिक (प्रीतिधर्मिक) कुल के आचार्य रोहनन्दि के शिष्य सेन के उपदेश से श्रावक इत्यादि । ( यह लेख सर कनिंघम के मत से ईस्वी पूर्व १० वर्ष का है)
जब हम कल्पसूत्र से मिलान करते हैं तो यह गण और कुल भी इस से मेल खाता है ।
पाठ :- थेरेहिंतो णं सिरिगुत्ते हिंतो इत्थणं चारणे गणे णामं गणे निग्गए, तस्सणं इमात्र चचारि साहाओ, सत्त य कुलाई एव माहिज्जंति-
से किं तं कुलाइ ? कुलाई एवमाहिज्जंति जहा पढमित्थ वत्यलिज्जं, बी पुरा परेइ धम्मिश्र होइ ।
अर्थात् : - स्थविर श्री गुप्त से चारण गण निकला तथा चारण गण से प्रीतिधर्मिक शाखा निकली।
छठा लेख :
सिद्ध । नमो भरहते महावीरस्य देवस्य राज्ञा वासुदेवस्य संवत्सरे ६८, वर्षामासे ४ दिवसे. ११ एतस्ये पूर्वाये आर्यं रोहनियतो
* A Canningham C, S. 1. Arch. Report Vol. III page 33. Flate No. 10 Script. 14. (B. C. 10)