Book Title: Bangal Ka Aadi Dharm
Author(s): Prabodhchandra Sen, Hiralal Duggad
Publisher: Vallabhsuri Smarak Nidhi

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Page 79
________________ ६८ ४. यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इन लेखों से यह प्रमाणित होता है कि कौटिकगण ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में अवश्य विद्यमान था । तथा उस समय में जैनधर्म की प्राचीनकाल से चली आने वाली आत्मज्ञानवाली शिष्य परम्परा भी अवश्य विद्यमान थी। उस समय जैन साधु अपने धर्म के प्रसार के लिये सदा तत्पर रहते थे तथा इस काल से पूर्व भी अवश्य तत्पर रहते होंगे । ५. जब कि उस समय में जैन साधुओं में वाचक पदवीधारी भी विद्यमान थे, तो यह बात भी निःसन्देह है कि उन वाचकों से शास्त्रों का अभ्यास करने वाले साधुओं के अनेक गण (समूह) भी अवश्य विद्यमान थे तथा जिन शास्त्रा का पठन पाठन होता था वे शास्त्र भी अवश्य विद्यमान थे । ६. ये लेख कल्पसूत्र में वर्णित स्थविरावली से बराबर मिलते हैं, अर्थात् जिन गणों, कुलों, शाखाओं का वर्णन कल्पसूत्र में आता है उन्हीं गणों, कुलों, शाखाओं का इन लेखों में उल्लेख है । अतः यह लेख निःसंदेह प्रमाणित करते हैं कि श्व ेताम्बर जैनों के परम्परागत शास्त्र बनावटी नहीं है अर्थात् श्व ेताम्बर जैनों के शास्त्रों को लगाये गये बनावटीपन के आरोप से ये शिलालेख मुक्त करते हैं । ७. तथा इन लेखों से यह बात निःसंदेह सिद्ध हो जाती है कि उस समय श्व ेताम्बर जैनों की वृद्धि और उन्नति खूब थी ८. मथुरा के इन सब लेखों से यह बात भी स्पष्ट है कि उस समय मथुरा शहर में बसने वाले जैन लोग श्व ेताम्बर जैन धर्मानुयायी थे । डाक्टर बूहर के इतने विवेचन के बाद अब हम बंगालदेश से प्राप्त जैन मूर्तियों के विषय में कुछ आलोचना करेंगे ।

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