Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 8
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे श्रीवर्द्धमानाभिध भगवंत (आत्मस्वरूप) आत्मरूप है । आत्मा शब्दका अर्थ ऐसा है कि, अतति सततं निरंतर अवगच्छति जानता है; अत् ‘सात्यतगमने' इस वचनसें, अत धातुकों गत्यर्थ होनेसें, और गत्यर्थ सर्व धातुयोंकों ज्ञानार्थत्व होनेसें । तब तो, अनवरत निरंतर जो जानें ऐसें निपातसें, आत्मा, जीव, उपयोग, लक्षण होनेसें, आत्मा सिद्ध होता है । और सिद्ध मोक्षावस्था संसारी अवस्था दानोंमेभी, उपयोगके भाव होनेकरके निरंतर अवबोधके होनेसें । जेकर निरंतर अवबोध न होवे, तब तो अजीवत्वका प्रसंग होवेगा; और अजीवको फेर जीव होनेके अभावसें. जेकर, अजीवभी जीव हो जावे, तब तो, आकाशादिकोंकोभी जीवत्त्व होनेका प्रसंग होवेगा । तब तो, जीवादि व्यवस्थाकाही भंग होवेगा । इसवास्ते, निरंतर अवबोधरूप होनेसें, आत्मा कहते हैं । अथवा, अतति सततं निरंतरं गच्छति प्राप्त होता है, अपनी ज्ञानादि-पर्यायोंकों जो, सो आत्मा है । - पूर्वपक्ष : एसें तो आकाशादिकोंकों भी, आत्मशब्दके व्यपदेशका प्रसंग होवेगा । क्योंकि, वेभी अपनी अपनी पर्यायांकों प्राप्त होते हैं; अन्यथा अपरिणामी होनेकरके, अवस्तुत्वका प्रसंग होवेगा । उत्तरपक्ष : जैसें तुम कहते हो, तैसें नहीं है । क्योंकि, दो प्रकारके शब्द होते हैं । व्यत्पत्तिमात्रनिमित्तरूप और प्रवृत्तिनिमित्तरूप; तिसमें यह तो व्युत्पत्तिमात्रही है, और प्रवृत्तिनिमित्तसें तो जीवही आत्मा है। न आकाशादि अथवा, संसारी अपेक्षा नानागतियोंमें निरंतर गमन करनेसें, और मुक्तात्माकी अपेक्षाभूततद्भावसे आत्मा कहते हैं। यह आत्मा शब्दका अर्थ है । सो आत्मा, तीन प्रकारका है । बाह्यात्मा १, अंतरात्मा २, परमात्मा ३ । तिनमें जो परमात्मा है, तिसका स्वरूप ऐसा है, जो शुद्धात्मस्वभावके प्रतिबंधक कर्म

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