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तत्त्वनिर्णय प्रासादे अजीव है। तथा धर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, और काल, ये चारों अरूपी अजीव है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, यह तीनों द्रव्यसें एकैक द्रव्य है, क्षेत्रसें धर्मास्ति-काय, अधर्मास्तिकाय यह दोनों लोकमात्र व्यापक है, आकाशास्तिकाय, लोकालोक व्यापक है, कालसें तीनों ही द्रव्य अनादि अनंत है, और भावसें वर्ण गंध रस स्पर्शरहित, और गुणसें धर्मास्तिकाय चलनेमें सहायक है, और धर्मास्तिकाय स्थितिमें सहायक है, और आकाशास्तिकाय सर्व द्रव्योंका भाजन विकास देनेमें सहायक है। काल, द्रव्य में एक वा अनंत है, क्षेत्रसे अढाइ द्वीप प्रमाण व्यावहारिक काल है, कालसें अनादि अनंत है, भावसें वर्ण गंध रस स्पर्श रहित, गुणसें नव पुराणादि करने का हेतु है। और रूपी अजीव पुद्गल रूप द्रव्य सें पुद्गल द्रव्य अनंत है, क्षेत्रसें लोक प्रमाण है, कालसें अनादि अनंत है, भावसें वर्ण गंध रस स्पर्श वाला है मिलना और विच्छड जाना यह इसका गुण है; इन पूर्वोक्त पांचों द्रव्योंका नाम अजीव है. २.
तथा पुण्य जो है, सो शुभ कर्मों के पुद्गल रूप है, जिनके संबंधसें जीव सांसारिक सुख भोगता है. ३ इससें जो विपरीत है सो पाप है. ४ मिथ्यात्व (१) अविरति (२) प्रमाद (३) कषाय (४)
और योग (५) यह पांच बंध के हेतत है; इस वास्ते इनकों आस्रव कहते हैं, ५. आस्रवका निरोध जो है सो संवर है, अर्थात् सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय, और योगनिरोध, यह संवर है। ६. कर्मका और जीवका क्षीरनीरकी तरें परस्पर मिलना तिसका नाम बंध है। ७. बंधे हुए कर्मोंका जो क्षरणा है सो निर्जरा है। ८.
और देहादिकका जो जीवसें अत्यंत वियोग होना और जीवका स्वस्वरूपमें अवस्थान करना तिसका नाम मोक्ष है। ९.
इन पूर्वोक्त नवही तत्त्वों का स्याद्वाद शैलीसें शुद्ध श्रद्धान करना तिसका नाम सम्यग्दर्शन है; और इनका स्वरूप पूर्वोक्त रीतिसें