Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ २८ अयोगव्यवच्छेदः हुआ, सो तो दृष्टेष्टबाधित है। छायातपवत्। विशेष इसका समाधान श्रुतिसहित आगें करेंगे। तब तो, ईश्वरकों सदा मुक्त, कूटस्थ, नित्य, देहादिरहित, सदा शिवादि न कहना चाहिये। पूर्वपक्ष:- ईश्वर तो देहादिसें रहित, सर्वव्यापक और सर्व शक्तिमान् है, इस वास्ते ईश्वर अवतार नही लेता है, परंतु सृष्टिकी आदिमें चार ऋषियोंकों अग्नि १, वायु २, सूर्य ३ और अंगिरस ४ नामवालोंकों, वेदका बोध ईश्वर करता है। उत्तरपक्ष:- यद्यपि यह पूर्वोक्त कहना दयानंदस्वामीका नवीन स्वकपोलकल्पित गप्परूप है, तथापि इसका उत्तर लिखते हैं। प्रथम तो, ईश्वर सर्वव्यापक होनेसें अक्रिय अर्थात् वो कोइभी क्रिया नही कर सकता है, आकाशवत्; तो फेर ऋषियोंको वेदका बोध कैसें करा सकता है। पूर्वपक्षः- ईश्वर अपनी इच्छासें वेदका बोध करता है । उत्तरपक्षः- इच्छा जो है, सो मनका धर्म है, और मन देह बिना होता नही हैं, ईश्वरके देह तुमने माना नही है, तो फेर, इच्छाका संभव ईश्वरमें कैसे हो सकता है? . पूर्वपक्षः- हम तो इच्छानाम ईश्वरके ज्ञानकों कहते हैं, ईश्वर अपने ज्ञानसें प्रेरणा करके वेदका बोध कराता है। उत्तरपक्षः- यहभी कहना मिथ्या है, क्योंकि, ज्ञान जो है, सो प्रकाशक है, परंतु प्रेरक नही है, ईश्वरमें रहा ज्ञान, कदापि प्रेरणा नही करसक्ता है, तो किसतरें ऋषियोंकों वेदका बोध कराता है ? पूर्वपक्ष:- पूर्वोक्त ऋषि, अपने ज्ञानसें ही ईश्वरके ज्ञानांतर्गत वेदज्ञानकों जानके, लोकोंकों वेदोंका उपदेश करते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50