Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ ३२ अयोगव्यवच्छेदः तथाबौद्धमतेपि "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छंति भूयोपि भवन्तीर्थनिकारतः ॥१॥" अर्थ:- अच्छे जनोंके उपकारवास्ते, और पापी दैत्योंके नाश करनेवास्ते, और धर्मके संस्थापनकरने वास्ते, हे अर्जुन! मैं युगयुगमें अवतार लेता हूं । १ । हमारे धर्मतीर्थका कर्ता बुद्ध भगवान्, परमपदकों प्राप्त होकेभी, अपने प्रवर्त्तमान करे धर्मकी वृद्धिकों देखके जगद्वासीयोंकी करी पूजाके लेनेवास्ते, और अपने शासनके अनादरसें अर्थात् अपने प्रवर्ताये शासनकी पीडा दूर करनेवास्ते, इहां आता है. ऐसी मोहजन्य करुणाकों हे ईश! युगयुगमें आश्रित नही हुआ है. ॥ १८ ॥ अथ स्तुतिकार भगवंतमें जैसा कल्याणकारी उपदेश रहा है, तैसा अन्यमत के देवोंमें नहीं है, यह कथन करते हैं जगन्ति भिन्दन्तु सृजन्तु वा पुनर्यथा तथा वा पतयः प्रवादिनाम् । त्वदेकनिष्ठे भगवन् भवक्षय क्षमोपदेशे तु परं तपस्विनः ॥ १९ ॥ व्याख्या:- (प्रवादिनाम्-पतयः) प्रवादीयोंके पति, अर्थात् परमतके प्रवर्तक देवते हरिहरादिक, (यथा तथा वा) जैसे तैसें प्रवादीयोंकी कल्पना समान वे देवते (जगंति) जगतांको (भिंदंतु) भेदन करो-प्रलय करो-सूक्ष्म रूप करके अपने में लीन करो; (वा पुनः) अथवा (सृजंतु) सृष्टियांकों सृजन (उत्पन्न) करो, यह कर्त्तव्य तिनके कहनेमूजब होवो, वे देवते करो, परंतु हे भगवन्!

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50