Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे व्याख्या:- मैं श्री हेमचंद्रसूरि (प्रतिपक्षसाक्षिणां) प्रतिपक्षसाक्षियोंके (समक्षं) समक्ष-प्रत्यक्ष (इमां) यह जो आगे कहेंगे तिस (उदारघोषाम्) मधुर शब्दोंवाली (अवघोषणाम्) अवघोषणा, लोकोंके जनावने वास्ते उच्च शब्द करके जो बोलना तिसका नाम अवघोषणा कहेत हैं, तिस अवघोषणाकों (ब्रुवे) बोलता हूं-करता हूं, सोही दिखाते हैं, (वीतरागात्) वीतरागसें (परं) परे-कोई (दैवतं) सत्यधर्मका आदि उपदेष्टा (न) नहीं (अस्ति) है, (च) और (अनेकांत-ऋते) अनेकांत अर्थात् स्याद्वादविना कोइ (नयस्थिति:-अपि) नयस्थितिभी (न) नहीं है; अर्थात् स्याद्वादके बिना पदार्थके स्वरूपके कथन करनेरूप जो नयस्थिति है सोभी नहीं है। स्यात् पदके चिन्हविना किसीभी नित्यानित्यादिनयके कथनकी सिद्धि न होनेसें ॥ २८ ॥ अथ स्तुतिकार अपने आपकों अपक्षपाती सिद्ध करते हैं। न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरिक्षया तु त्वामेव वीरं प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥ २९ ॥ व्याख्या:- हे वीर! (श्रद्धया-एव) श्रद्धा मात्र करकेही, अर्थात् श्री महावीरके बिना अन्य किसी परवादीके मतके देवकों अपना प्रभु ईश्वर सत्योपदेष्टा नहीं मानना, ऐसी श्रद्धा, मनकी दृढता करकेही, (त्वयि) तेरेविषे हमारा (पक्षपात:) पक्षपात (न) नहीं है, और (द्वेषमात्रात्) द्वेषमात्रसें (परेषु) परमतके देव हरिहरब्रह्मादकिोंमें (अरुचिः) अरुचिअप्रीति (न) नहीं है, परंतु (यथावदाप्तत्वपरीक्षयातु) यथावत् आप्तपणेकी परीक्षा करके ही, हे वीर! वर्द्धमान! हम (त्वां-एव) तुजही (प्रभुम्) प्रभुकों (आश्रिताः स्मः) आश्रित हुए

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50