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तत्त्वनिर्णय प्रासादे
अथ स्तुतिकार नामके पक्षपातसें रहित होकर, गुणविशिष्ट भगवंतकों नमस्कार करते हैं।
यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोस्यभिधया यथा तथा । वीतदोषकलुषः स चेद्भवा नेक एव भगवन्नमोऽस्तुते ॥ ३१ ॥
व्याख्या:- (यत्र तत्र समये) जिसतिस मतके शास्त्रमें (यथातथा) जिस तिस प्रकारकरके (यया तया अभिधया) जिस तिस नाम करके (यः) जो तूं (असि) है (सः) सोही (असि) तूं है, परं (चेत्) यदि जेकर (वीतदोषकलुषः) दूर होगए हैं द्वेष राग मोह मलिनतादि दूषण, तो, (भवान्-एक-एव) सर्व शास्त्रोंमें तूं जिस नामसें प्रसिद्ध है, सो सर्व जगें तूं एकही है, इस वास्ते हे भगवन् ! (ते) तेरे तांइ (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥ ३१ ॥
अथ स्तुतिकार स्तुतिकी समाप्तिमें स्तुतिका स्वरूप कहते हैं। इदं श्रद्धामात्रं तदथ परनिन्दां मृदुधियो विगाहन्तां हन्त प्रकृतिपरवादव्यसनिनः । अरक्तद्विष्टानां जिनवरपरीक्षाक्षमधियामयंतत्त्वालोकः स्तुतिमयमुपाधिं विधृतवान् ॥३२॥
व्याख्याः- (मृदुधियः) मृदु कोमल विशेषबोधरहित जिनकी कोमल बुद्धि है, वे पुरुष तो (इदम्) इस स्तोत्रकों (श्रद्धामात्र) श्रद्धामात्र, अर्थात् जिनमतकी हमकों श्रद्धा है, इसवास्ते हम इसको सत्य करकेही मानेंगे, ऐसे जन तो इस स्तोत्रकों श्रद्धामात्र (विगाहन्तां) अवगाहन करो-मानो, (हन्त) इति कोमलामंत्रणे (तत्-अथ)