Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे ३९ क्योंकि, पूर्वोक्त साम्राज्यरूप रोग आत्माकों मलिन करने और दुःख देनेवाला है, इस वास्ते वृथाही है ॥ २५ ॥ अथाग्रे स्तुतिकार असत्वादी और पंडितजनोंके लक्षण कहते है । स्वकण्ठपीठे कठिनं कुठारं परेकिरन्तः प्रलपन्तु किंचित् । मनीषिणां तु त्वयि वीतराग ! न रागमात्रेण मनोऽनुरक्तम् ।। २६ ।। व्याख्या: (परे) परवादी जे हैं, वे (स्वकण्ठपीठे) अपने कंठपीठमें (कठिनं) कठिन - तीक्ष्ण (कुठारं) कुठार- कुहाडा ( किरन्तः ) क्षेपन करते हुए (किंचित्) कुछक (प्रलपन्तु) प्रलपन करो, अर्थात् परवादी अप्रामाणिक युक्तिबाधित किंचित् तत्त्वके स्वरूपकथनरूप कठिन कुठार - कुहाडा अपने कंठपीठमें क्षेपन करोमारो, यद्वा तद्वा बोलो, सत्मार्गके अनभिज्ञ होनेसें, अपने आत्माकी हानि करो, परंतु हे वीतराग ! ( मनीषिणां तु) मनीषि-पंडितसद्बुधिमानोंका तो ( मन ) मन- अंतःकरण ( त्वयि ) तेरे विषे (रागमात्रेण) रागमात्र करके (न) नहीं (अनुरक्तं ) रक्त है, किंतु युक्तिशास्त्र के अविरोधि तेरे कथनके होनेसें तेरे विषे पंडितजनोंका मन अनुरक्त है ॥ २६ ॥ - अथाग्रे जे पुरुष अपनेकों माध्यस्थ मानते हैं, परंतु वेभी निश्चय मत्सरी हैं, तिनका स्वरूप कथन करते हैं । सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य न नाथमुद्रामतिशेरते ते ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50