Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 38
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे (त्वदेकनिष्ठे) एक तेरेहीमें रहे हुए (भवक्षयक्षमोपदेशेतु) संसारके क्षय करनेमें समर्थ ऐसे धर्मोपदेशके देनेमें तो, वे परवादीयोंके पति (स्वामी) देवते, (परं) परमउत्कृष्ट (तपस्विनः) तपस्वी अर्थात् दीन हीन कंगाल गरीब है, अनुकंपा करने योग्य है; क्योंकि, वे बिचारे दूधकी जगे आटेका धोवन अपने भक्तोंकों दूध कहके पिलारहे हैं, इस, वास्ते अनुकंपा करनेयोग्य है कि, इन बिचारांकों किसीतरें सच्चा दूध मिले तो ठीक है ॥ १९ ॥ अथ स्तुतिकार परवादियोंके नाथोंने भगवान्की मुद्राभी नही सीखी है यह कथन करते हैं वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च दृशौ च नासानियते स्थिरे च । . न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैजिनेंद्रमुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥ २० ॥ व्याख्या- हे जिनेंद्र ! (परतीर्थनाथैः) परतीर्थनाथोंने (इयं) येह (तव) तेरी (मुद्रा-अपि) मुद्राभी, शरीरका न्यासरूपभी (न) नही (शिक्षिता) सीखी है तो (अन्यत्) अन्य तेरे गुणोंका धारण करना तो (आस्ताम्) दूर रहा, कैसी है तेरी मुद्रा? (वपुः- च) शरीर तो (पर्यंकशयं) पर्यंकासनरूप (च) और (श्लथं) शिथिल है, (च) और (दृशौ) दोनों नेत्र (नासानियते) नासिकाउपर दृष्टिकी मर्यादासंयुक्त (च) और (स्थिरे) स्थिर है। ___ भावार्थ:- यह है कि, भगवंतकी जो पर्यंकासनादिरूप मुद्रा है, सो मुद्रा, योगीनाथ भगवंतने योगीजनोंके ज्ञापनवास्ते धारण करी है; क्यों कि, जितना चिरयोगीनाथ आप योगकी क्रिया नही करदिखाता है तितना चिरयोगी जनोंकों योग साधनेका क्रियाकलाप

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