Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे अथ स्तुतिकार भगवंत श्रीवर्द्धमानस्वामी फेर अयोग्यव्यवच्छेद कहते हैं प्रागेव देवांतरसंश्रितानि रागादिरूपाण्यवमांतराणि । न मोहजन्यां करुणामपीश समाधिमास्थाय युगाश्रितोऽसि ॥ १८॥ व्याख्याः – हे जिनेंद्र! हे ईश! (रागादिरूपाणि) राग, द्वेष, मोह, मद, भदनादिरूपदूषण (प्राक्-एव) पहिलाही (देवांतरसंश्रितानि) तेरे भयसें, (देवांतर) अन्यदेवोंमें आश्रित हुए हैं कि, मानू, निर्भय हम इहां रहेगें; जिनेंद्र तो हमारा समूलही नाश करनेवाला है, इसवास्ते किसी बलवंतमें रहना ठीक है, जो हमारी रक्षा करे, मानू, ऐसा विचारकेही रागादि दूषण देवांतरोंमें स्थित हुए हैं। कैसे है वे रागादिदूषण? (अवमांतराणि) जे क्षयकों प्राप्त नही हुए हैं, अर्थात् अप्रतिहत शक्तिवाले हैं, जिनका क्षय वा क्षयोपशम वा उपशम किंचित् मात्रभी नही हुआ है, इस वास्ते हे ईश ! तूं (समाधि-आस्थाय) समाधिकों अवलंबके, समाधिनाम शुक्लध्यानकों अवलंबके, (मोहजन्यां) मोहजन्य (करुणां-अपि) करुणाकोंमी (न) नही (युगाश्रितः-अस्ति) युगमें आश्रित हुआ है, अर्थात् मोहरूप करुणा करकेभी तूं युगयुगमें अवतार नही लेता है। जैसे गीतामें लिखा है "उपकाराय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतम् । धर्मसंस्थापनार्थाय ---- संभवामि युगेयुगे ॥१॥"

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50