________________
.
२३
तत्त्वनिर्णय प्रासादे संभावना करके विप्रलंभरूप वे उपदेश रचे गए हैं; भावार्थ यह है कि, अनाप्तोंकी मंदबुद्धिकी संभावनासें जे विप्रलंभरूप-विप्रतारणरूप उपदेश रचे गए हैं, वे उपदेश, तेरे परमाप्तके रचे पथोपदेशमें कोप वा आक्रोश, वा तिनके खंडनमें उत्साह, वा वेग जलदी नही कर सक्ते हैं, असमर्थ होनेसें. ।। ९५ ।।
अथ स्तुतिकार परवादियोंके मतमें जे उपद्रव हुए हैं, वे उपद्रव भगवान्के शासनमें नही हुए हैं, ऐसा स्वरूप दिखाते हैं।
यदार्जवादुक्तमयुक्तमन्यै स्तदन्यथाकारमकारि शिष्यैः। न विप्लवोऽयं तव शासनेभूदहो अधृष्या तव शासनश्रीः ॥ १६ ॥ व्याख्या- (अन्यैः) परमतके आदि पुरुषोंने (आर्जवात्) आर्जवसें अर्थात् भोले भाले सादे अपने मनमाने विचारसें (यत्) जो कुछ वेदादि शास्त्रोंमें (अयुक्तम्) अयोग्य (उक्तम्) कथन करा है (तत्) सोही कथन (शिष्यैः) तिनके शिष्योंने (अन्यथाकारम्) अन्यरूपही (अकारि) कर दीया है; क्योंकि, प्रथम जे वेद थे वे अनीश्वरवादी मीमांसकोंके मतानुयायी थे, और कर्मकांड यजनयाजनादि और अनेक देवतायोंकी उपासना करके स्वर्ग प्राप्ति मानते थे,
और काम्य कर्मों के वास्ते अनेक तरेंके यज्ञादि करते थे, मोक्ष होना नही मानते थे, सर्वज्ञकोंभी नही मानते थे, वेदोंकों अपौरुषेय किसीके रचे हुए नही हैं, किंतु अनादि हैं, ऐसें मानते थे; तिस अपने मतकी पुष्टि वास्ते पूर्वमीमांसा नामक ऐसें जैमनि मुनिने रचे है, ऐसा इस मतका स्वरूप था। प्रथम तो वेदोंमें ही गडबड कर दीनी, कितनेही प्राचीन मंत्र बीचसे निकाल दिये, ऋग्वेदमें पुरुषसूक्त, और जे जे