Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 26
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे २१ (तत्) सो, तिस प्राणिका (दुःखमाकालखलायितं) पंचम दुःखम कालका खलायितपणा है,-दु:खम कालही तिस जीवके साथ खलकी तरें आचरण करता है, जो सत्य जिनेंद्रके कथन करे मार्गकी प्राप्ति नही होने देता है, (वा) अथवा, (भवानुकूलम्) तिस जीवके भवानुकूल संसारमें भ्रमण करवाने योग्य (कर्म) अशुभ कर्म मिथ्यात्व मोहनीयादि (पचेलिमं) पक्के हुए, अर्थात् अपना फल देनेके वास्ते उदयावलिमें आये हुए है, तिनके उदयसें जिनेंद्रके कथन करे हुए मार्गकों अंगीकार नही कर सक्ता है, जैसें, ऊंट द्राक्षावेलडीके खानेकी इच्छा नही करता है, तैसेंही दु:खम काल खलायितपणेसें ओर पचेलिम कर्मके उदयसें, यह जन, हे जिनेंद्र! तेरे मार्गकी उपेक्षा करता है, अर्थात् कल्याणकारी जानके अंगीकार नही करता है; अथवा तेरे शासनके साथ शत्रुपणा करता है ॥ १३ ॥ कोई कहे कि, तप करना, और योगाभ्यासादि सत्कर्म करने, तिनके प्रभावसेंही मोक्षकी प्राप्ति हो जावेगी, तो फेर जिनेंद्रके कथन करे मार्गके अंगीकार करनेकी क्या आवश्यकता है ? तिसका उत्तर, स्तुतिकार देते हैं । परः सहस्त्राः शरदस्तपांसि युगांतरं योगमुपासतां वा । तथापि ते मार्गमनापतन्तो न मोक्ष्यमाणा अपि यान्ति मोक्षम् ॥ १४ ॥ व्याख्या- हे भगवन् ! (परः) पर अन्य मतावलंबी (सहस्राः) हजारों (शरदः) वर्षांताई (तपांसि) विविध प्रकारके तप करो, (वा) अथवा (युगांतरं) अर्थात् बहुत युगांतांई (योग) योगाभ्यासकों (उपासतां) सेवोकरो, (तथापि) तोभी वे (ते) तेरे (मार्गम्) मार्गकों (अनापतंतः) न प्राप्त होते हुए, अर्थात् तेरे मार्गके

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