Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 20
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे १५ इनके मतका श्रवण करना तथा इनका संसर्ग करना, अच्छा नही है, इत्यादि अनेक वचन बोलके पूवोक्त तीनोंका अपमान करते हैं । ॥ ७ ॥ अथाग्रे भगवत् के शासनका महत्त्व कथन करते हैं । प्रादेशिकेभ्यः परशासनेभ्यः पराजयो यत्तव शासनस्य । खद्योतपोतद्युतिडम्बरेभ्यो विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥ ८ ॥ व्याख्या - हे जिनेंद्र ! (परशासनेभ्यः) पर शासनोंसें, कैसें पर शासनोंसे ? (प्रादेशिकेभ्यः) प्रमाणका एक अंश माननेसें जे मत उत्पन्न हूए है, अर्थात् एक नयको मानके जे परमत वादीयोंने उत्पन्न करे हैं, तिनका नाम प्रादेशिक मत है । आत्मा एकांत नित्यही है, वा क्षणनश्वरही है, वस्तु सामान्य रूपही है, वा विशेष रूपही है वा सामान्य विशेष स्वतंत्र ही पृथक् २ है, कार्य सत्ही उत्पन्न होता है, वा असत् ही उत्पन्न होता है, गुण गुणीका एकांत भेद ही है, वा एकांत अभेदही है, एकही ब्रह्म है, इत्यादि प्रादेशिक परमतोंसे (यत्) जो ( तव शासनस्य) तेरे शासनका (पराजय) पराजय है, सो ऐसा है, जैसा ( खद्योतपोतद्युतिडम्बरभ्यः) खद्योतके बच्चेकी पांखो के प्रकाश रूप अंडबरसें (हरि मंडलस्य) सूर्य के मंडलकी ( इयं ) येह ( विडम्बना ) विटम्बना अर्थात् पराभव करना है, भावार्थ यह है कि, क्या खद्योतका बच्चा अपनी पांखोके प्रकाशसें सूर्यके प्रकाशकों पराभव कर सक्ता है ? कदापि नही कर सक्ता है। तैसें ही, हे जिनेंद्र ! एक नया भास मतके माननेवाले वादी, खद्योत पोतवत् तेरे अनंत नयात्मक स्याद्वाद मतरूप सूर्यमंडलका पराभव कदापि नही कर सक्ते हैं ॥ ८ ॥

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