Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ १६ अयोगव्यवच्छेदः भगवंतका शासन सर्व प्रमाणोंसे सिद्ध है। अथ, जो ऐसे शासनमें संशय करता है, क्या जाने यह भगवंत अर्हन्का शासन सत्य है, वा नही ? अथवा, जो भगवंतके शासनमें विवाद करता है कि, यह शासन सत्य न ही है, ऐसे पुरुषकों स्तुतिकार उपदेश करते हैं। शरण्यपुण्ये तव शासनेऽपि संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा । स्वादौ सतथ्ये स्वहिते च पथ्ये संदेग्धि वा विप्रति पद्यते वा ॥ ९ ॥ व्याख्या- हे जिनेन्द्र! (शरण्यपुण्ये) शरणागतकों जो त्राण करणे योग्य होवे तिसकों शरण्य कहते हैं तथा पुण्य पवित्र ऐसे (तव) तेरे (शासनेऽपि) शासनके हूएभी (यो) जो पुरुष तेरे शासनमें (संदेग्धि) संदेह करता है (वा) अथवा (विप्रतिपद्यते) विवाद करता है, सो पुरुष (स्वादौअत्यंत) स्वादवाले (तथ्ये) सच्चे (स्वहिते) स्वहितकारी (च) और (पथ्ये) निरोग्यतामें साहायक ऐसे सुंदर भोजनमें (संदेग्धि) संशय करता है, क्या जाने यह भोजन, स्वादु, तथ्य, स्वहितकारि,-पथ्य है, वा नही? (वा) अथवा (विप्रतिपद्यते) विवाद करता है, यह भोजन, स्वादु, तथ्य, स्वहितकारि, पथ्य, नही है, यह तिसकी प्रग अज्ञानता है। अंतिमका वा, पाद पूरणार्थ है। काव्यका भावार्थ यह है कि, हे जिनेंद्र ! शरणागतकों त्राण करणेवाला तेरा शासन शरण्य रूप है "चत्तारि सरणमिति वचनात्"-चारही वस्तुयें जगत्में शरण्य है। अरिहंत १, सिद्ध, २, साधु, ३, और केवलज्ञानीका कथन करा हुआ धर्म, ४. तिनमें अरिहंत उसकों कहते हैं, जिनोने ज्ञानावरण, १, दर्शनावरण, २, मोहनीय, ३, और अंतराय, ४, इन चारों कर्मकी ४७ उत्तर

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50