Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ १८ अयोगव्यवच्छेदः इस वास्ते सर्व शरणाभूतोंसे अधिकं शरण्यभूत, हे भगवन् ! तेरा शासन है ॥ ४ ॥ ___ तथा हे जिनेंद्र ! तेरा शासन पुण्य पवित्र है, सर्व दूषणोंसें मुक्त होनेसें, प्रमाण युक्ति शास्त्रसें, अविरोधि वचन होनेसें, तथा दृष्टसें भी अविरोधि होनेसें, ऐसे शरण्य और पवित्र तेरे शासनके हुएभी, जो कोइ इसमें संशय करता है, वा विवाद करता है, सो पुरुष, अत्यंत स्वादु , तथ्य, स्वहितकारि, पथ्य भोजनमें संशय करनेवाला है, अर्थात् वो अत्यंत ही मूर्ख है, जो ऐसी वस्तुमें संशय वा विवाद करता है ॥ ९ ॥ अथ स्तुतिकार अन्य आगमोंके अप्रमाण होनेमें हेतु कहते हैं। हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः । .. नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच्च ब्रूमस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥ १० ॥ व्याख्या हे जिनेंद्र ! (त्वदन्यागमम्) तेरे कथन करे हुए आगमोंसें अन्य आगम (अप्रमाणम्) प्रमाण नही, अर्थात् सत्पुरुषांकों मान्य नही है, ऐसें (ब्रूमः) हम कहते हैं। अन्य आगमोंको प्रमाणता किस हेतुसें नही है? सोइ दिखाते हैं (हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशात्) वे, अन्य वेदादि आगम, हिंसादि असत् कर्मोंके पथके उपदेशक होनेसें, और (असर्वविन्मूलतयाप्रवृत्तेः) असर्ववित् , असर्वज्ञोंके मूलसें प्रवृत्त होनेसें, अर्थात् असर्वज्ञोंके कथन करे हुए. होनेसें, और (नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहात्) निर्दय, उपलक्षणसें मृषा, चोरी, स्त्री, परिग्रहके धारनेवाले दुर्बुद्धि, अर्थात् कदाग्रही असत्पक्षपातीयोंके ग्रहण करे हुए होनेसें; भावार्थ ऐसा है कि, जे आगम, निर्दयी, मृषावादी, अदत्तग्राही स्त्री के भोगी और परिग्रहके लोभीयोंने ग्रहण करे हैं, अर्थात् वे जिन

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50