Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 13
________________ अयोगव्यवच्छेदः यथास्थितं वस्तु दिशन्त्रधीश न तादृशं कौशलमाश्रितोऽसि । तुरंगशृंगाण्युपपादयद्भयो नमः परेभ्यो नवपण्डितेभ्यः ॥५॥ व्याख्या- हे अधीश ! हे जिनेंद्र ! तूं (यथास्थितं) यथास्थित (वस्तु) वतुस्का स्वरूप (दिशन्) कथन करता हूआ (तादृशं))तैसी (कौशलं))कौशलता-चातुर्यताकों (न) नही (आश्रितोसि) आश्रितप्राप्त हुआ है, जैसी चातुर्यताकों असद्रूप पदार्थकों, सद्रूप कथन करते हुए परवादी प्राप्त हुए हैं, अर्थात् जीव १, अजीव २, पुण्य ३, पाप ४, आस्रव ५, संवर ६, निर्जरा ७, बंध ८, और मोक्ष ९, यह नव पदार्थ है। तिनमें जो जीव है, सो ज्ञानादि धर्मोंसें कथंचित् भिन्नाभिन्न रूप है, शुभाशुभ कर्मोका कर्ता है, अपनेकरे कर्मोका फल अपने अपने निमित्तों द्वारा भोक्ता है, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप चार गतिमें अपने कर्मोंके उदयसें भ्रमण करता है, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप साधनोंसें निर्वाण पदकों प्राप्त होता है, चैतन्य अर्थात् उपयोग ही जिसका लक्षण है, अपने कर्मजन्य शरीर प्रमाण व्यापक है, द्रव्यार्थिक नयके मतसें नित्य है, पर्यायार्थिक नयके मतसें अनित्य हैं, द्रव्यार्थ स्वरूपसें अनादि अनंत है, पर्यायार्थे सादि सांत है, और कर्मो के साथ प्रवाहसेंअनादि संयोग संबंधवाला है, इत्यादि विशेषणोंवाला जीव है। ॥ १ ॥ चैतन्यरहित, अज्ञानादि धर्मवाला, रूप, रस, गंध, स्पर्शादिकसें भिन्ना-भिन्न नरामरादि भवांतरमें न जानेवाला, ज्ञानावरणादि कर्मोका अकर्ता, तिनोंके फलका अभोक्ता, जड स्वरूप, इत्यादि विशेषणोंवाला रूपी, अख्पी, दो प्रकार का अजीव है। तिनमें परमाणुसें लेके जो वस्तु वर्ण गंध रस स्पर्श संस्थानवाला दृश्य है, वा अदृश्य है, सो सर्व रूपी

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