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अयोगव्यवच्छेदः इन पूर्वोक्त वादियोंने असत् वस्तुकों सत् कथन करनेमें जैसी कुशलता प्राप्त करी है, तैसी, हे जिनाधीश! तैंने नही पाई है इस वास्ते, तिन परंपडितोंकेतांइ हमारा नमस्कार होवे। इहां जो नमस्कार करा है, सो उपहास्य गर्भित है, नतु तत्वसें ॥ ५ ॥
अथ स्तुतिकार भगवंतमें व्यर्थ दयालुपणेका व्यवच्छेद करते हैं। जगत्युध्यानबलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसभं भवत्सु । किमाश्रितोऽन्यैः शरणं त्वदन्यः स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः ॥ ६ ॥
व्याख्या- हे भगवंत ! (जगति) जगत्में शश्वत्) निरंतर (प्रसभं) यथास्यात् तैसें हठसें (भवस्तु) तुमारे कों (कृतार्थयत्सु) जगत्वासी जीवांकों कृतार्थ करते हूआं, किस करके (अनुध्यान बलेन) अनुध्यान शब्द अनुग्रहका वाचक है, अनुग्रहटे बल करके, अथात् सद्धर्मदेशनाके बल करके भव्य जीवोंके तारने वास्ते निरंतर जगत् में प्रसभसें -हठसें देशनाके बलसें ननोंकों कृता करते हुए, क्योंकि परोपकार निरपेक्ष अर्थात् बदले के उपकारकी पेक्षा रहित जो अनुग्रह के बलसें भव्य जनोंकों मोक्षमार्गमें प्रवर्त कर। है, इसके उपरांत अन्य कोइभी ईश्वरकी दयालुता नही है, जे कर विनाही उपदेश के दयालु ईश्वर तारने समर्थ है, तो फेर द्वादशांग, चार वेद, स्मृति, पुराण, बैबल, कुरानादि पुस्तकों द्वारा उपदेश प्रगट करना व्यर्थ सिद्ध होवेगा; इस वास्ते ईश्वरकी यही दयालुता है, जो भव्य जनोंकों उपदेश द्वारा मोक्षमार्ग प्राप्त करना सो, तो आप निरंतर जगत्में करही रहे हैं, ऐसे आप परम कृपालुकों छोडके (अन्यैः) अन्य परवादीयोंने (त्वदन्यः) ,तुमारेसें अन्यकों (शरणं) शरणभूत (किम्) किसवास्ते