Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 9
________________ अयोगव्यवच्छेदः शत्रुयोंको हणके निरूपमोत्तम केवलज्ञानादि स्वसंपद पाकरके, करतलामलकवत् समस्त वस्तुके समूहकों विशेष जानते और देखते हैं; और परमानंदसंपन्न होते हैं; वे तेरमें चौदमें गुणस्थानवर्त्ती जीव, और सिद्धात्मा, शुद्धस्वरूपमें रहनेसें, परमात्मा कहे जाते हैं । ऐसा परमात्मास्वरूप है, जिसका ॥ १ ॥ ४ इस काव्यका भावार्थ यह है कि, सपाद लक्ष पंचांगव्याकरणादि साढेतीन कोटि श्लोकोंके कर्त्ता, श्री हेमचन्द्राचार्य, अपने आपको श्रीवर्द्धमान भगवंतकी संपूर्ण स्तुति करनेकी सामर्थ्य न देखते हुए, अपने आपकों कहते हैं कि, जो वर्द्धमान भगवंत परमात्मरूप है, जो अध्यात्म ज्ञानियोंके अगम्य है, जो वचस्वियोंके अवाच्य है, और जो नेत्रवालोंके परोक्ष है, तिनकों मैं स्तुतिका विषय करता हूं, यह बडाही मेरा साहस है। तब मानूं श्री वर्द्धमान भगवंत साक्षातही श्री हेमचंद्राचार्यकों कहते हैं कि, " हे हेमचंद्र ! जेकर तूं मेरी स्तुति करनेकों शक्तिमान् नहीं है तो, तूं किसवास्ते मेरी स्तुति करनेकों उद्यम करता है?" तब श्री हेमचंद्राचार्य भगवंतको मानूं साक्षात्ही कहते हैं । स्तुतावशक्तिस्तव योगिनां न किं गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः । इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन् न बालिशोप्येष जनोऽपराध्यति ॥ २ ॥ व्याख्या :- "हे भगवन् ! (तव) तेरी (स्तुतौ ) स्तुति करनेमें (किम्) क्या ( योगिनाम्) योगियोंको ( अशक्ति: ) असमर्थता (न) नही हैं ? अपितु है; अर्थात् हे भगवन् ! तेरी स्तुति करनेकी योगियोंमें भी शक्ति नही है, परंतु तिनोंनेभी तेरी स्तुति करी है ।" तब मानूं भगवान् फे..... साक्षात् श्री हेमचंद्रजीकों कहते है कि, "हे

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