Book Title: Ayogvyavacched Dwatrinshika
Author(s): Vijaypradyumnasuri
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 10
________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे हेमचंद्र ! योगियोंकों मेरे गुणोंमें अनुसग है, इस वास्ते तिनोंने मेरी स्तुति करी है । जो गुण रागी करेगा सो समीची नही करेगा।" तब श्रीहेमचंद्रजी कहते है (गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः) "गुणानुराग तो मेरा भी निश्चल है; अर्थात् हे भगवन् ! तेरे गुणोंका राग तो मेरेभी अति दृढ है । (इदम्) यही वार्ता (विनिश्चित्य) अपने मनमें चिंतन करके अर्थात् निश्चय करके (तव स्तवं वदन्) तेरी स्तुति कहता हुआ (बालिश:अपि) मूर्ख भी (एष जनः) यह हेमचंद्र (नअपराध्यति)अपराधका भागी नही होता है। अथ स्तुतिकार अपनी निरभिमानता और पूर्वाचार्योंकी बहुमानता सूचन करते हैं ॥ क्क सिद्धसेनस्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः ॥ ३ ॥ व्याख्या-हे भगवन्! (क्व) कहां तो (महार्थाः) अति महा अर्थ संयुक्त (सिद्धसेनस्तुतयः) सिद्धसेनदिवाकरकी करी हुईस्तुतियां, और (क्व: कहां (एषा) यह (अशिक्षितालापकला) नही सीखा है अब तक पूरा पूरा बोलनाभी जिसने, तिसके कहनेकी स्तुतिरूप कला; अर्थात् कहां श्रीसिद्धसेनदिवाकररचित महा अर्थवालिया बत्तीस बत्तीसियां, और कहां मेरे अशिक्षित आलापकी यह स्तुतिरूप कला; (तथापि) तोभी, (यूथाधिपतेः) हाथियोंके यूथाधिपके (पथस्थः) पथ मार्गमें रहा हुआ (स्खलद्गतिः) स्खलित गतिभी, अर्थात् पथसें इधर उधर गति स्खलायमान भी (तस्य) तिस यूथाधिपका (शिशुः) बालक कलम (न शोच्यः) शोचनीय नही है।

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