Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 5
________________ पीड़ा घनी होती जाती है। देखो लोगों के चेहरे, देखो लोगों के अंतरतम में घाव ही घाव हैं! खूब मलहम-पट्टी की है, लेकिन घाव मिटे नहीं। घावों के ऊपर फूल भी सजा लिए हैं, तो भी घाव मिटे नहीं। फूल रख लेने से घावों पर, घाव मिटते भी नहीं। अपने में ही देखो। सब उपाय कर के तुमने देखे हैं। जो तुम कर सकते थे, कर लिया है। हार-हार गए हो बार-बार। फिर भी एक जाग नहीं आती कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, वह हो ही नहीं सकता। अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो, और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है-अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने ही केंद्र को नहीं खोजा तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो। अगर तुमने माना कि तुम शरीर हो तो दूसरे तुम्हें शरीर से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे अगर तुमने माना कि तुम मन हो तो दूसरे तुम्हें मन से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। यदि तुमने कभी जाना कि तुम आत्मा हो, तो ही तुम्हें दूसरे में भी आत्मा की किरण का आभास होगा। हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो। कम से कम भीतर की वर्णमाला तो पढ़ो, भीतर के शास्त्र से तो परिचित होओ तो ही तुम दूसरे से भी शायद परिचित हो जाओ। और मजा ऐसा है कि जिसने अपने को जाना, उसने पाया कि दूसरा है ही नहीं। अपने को जानते ही पता चला कि बस एक है, वही बहुत रूपों में प्रगट हुआ है जिसने अपने को पहचाना उसे पता चला परिधि हमारी अलग-अलग, केंद्र हमारा एक है। जैसे ही हम भीतर जाते हैं, वैसे ही हम एक होने लगते हैं। जैसे ही हम बाहर की तरफ आते हैं, वैसे ही अनेक होने लगते हैं। अनेक का अर्थ है : बाहर की यात्रा। एक का अर्थ है : अंतर्यात्रा। तो जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा, दूसरे से परिचित होना चाहेगा:। पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है, स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है। हम मित्र बनाना चाहते हैं, हम परिवार बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं अकेले न हों। अकेले होने में कितना भय लगता है! कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां जब हम अकेले होते हैं। कैसी कठिन और दूभर-झेलना मुश्किल! क्षण-क्षण ऐसे कटता है जैसे वर्ष कटते हों। समय बड़ा लंबा हो जाता है। संताप बहुत सघन हो जाता है समय बहुत लंबा हो जाता है। तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं ताकि यह अकेलापन मिटे। हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं ताकि यह अजनबीपन मिटे, किसी तरह टूटे यह अजनबीपन-लगे कि यह हमारा घर है!

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