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जुलाई - २०१४
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नगर का सुन्दर वर्णन है । जहाँ अनेक समृद्धि से युक्त श्रावकगण निवास करते हैं । भगवान पार्श्वनाथ मन्दिर है जो कि ध्वजापताकाओं से पहचाना जाता है । उसके पश्चात् संस्कृत गद्य में यह चाहना की गई है कि हे प्रभु! आप हमें दर्शन दीजिए जिससे हमारे सर्व मनोरथ पूर्ण हों । आप अन्यत्र कहीं न जाएं, जयपुर ही पधारें ।
तदनन्तर संस्कृत अनुष्टुप् के १३ श्लोकों में आचार्यश्री के निर्मल गुणगणों का वर्णन है । इसके पश्चात् समासबहुल गद्य शैली में रमणीय वर्णन
। इस वर्णन में आचार्यश्री का नाम दिया गया है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस गद्य भाग को कहीं से लिया गया है । क्योंकि अमुक नगरतः उल्लेख किया गया है, इसीलिए यह इसका अंश प्रतीत नहीं होता है ।
तदनन्तर प्राचीन राजस्थानी और ढूंढाणी मिश्रित भाषा में यहाँ के समाचार हैं । लेखक ने पर्युषणपर्वाराधन करते हुए अपने कार्यकलापों का वर्णन किया है और आचार्यश्री के गुणगणों का वर्णन है । यह भी लिखा गया है कि आप हमारे ऊपर कृपादृष्टि रखें और जैसे भी हो जयपुर पधारने की कृपा करावें किससे कि हमारे मनोरथ पूर्ण हों । उसके बाद ६ दोहों में . कल्पसूत्र वाचन और प्रभावना इत्यादि का उल्लेख किया गया है ।
अन्त में भास लिखा गया है जिसमें कि भगवान महावीर से पट्ट - परम्परा दी गई है। सुधर्म गणधर से प्रारम्भ कर जिनेश्वरसूरि और दुर्लभराज का . उल्लेख करते हुए, नवाङ्गवृत्तिकारक अभयदेव, जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनकुशलसूरि का उल्लेख करते हुए, जिनरङ्गसूरि परम्परा में श्रीजिनअक्षयसूरि के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि का वर्णन किया गया है और यह कहा गया है . किं इस पंचम काल में नामधारक आचार्य तो बहुत हैं, किन्तु आपके समान कोई नहीं है, कहते हुए वाचक लावण्यकमल के शिष्य कमलसुन्दर का उल्लेख किया गया है । इसके पश्चात् संस्कृत के स्रग्धरा के पाँच छन्दों में ऋषभादि पञ्चतीर्थी का वर्णन किया गया है ।
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यह प्रति श्रीजिनरङ्गसूरि शाखा के उपाश्रय में श्रीमालों के मन्दिर के भण्डार में विद्यमान थी, किन्तु अब यह सङ्ग्रह श्रीमालों की दादाबाड़ी, जयपुर में आ गया है । पत्र संख्या ७ है, साईज २५.३ x १२.३ से.मी. है।
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