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अनुसन्धान-६४.
द्वादशावर्त वन्दना १००८ समें समें अवधारजो।
अठे श्रीहजूरसाहिब के प्रताप सेती कुसल-आनन्द वर्ते है । महाराजसाहिबरा तप-तेज-सीयल-संजमरा सदा सर्वदा आरोग्य आवें तो भला सेवकनें परम आनन्द होय । और हजूर साहिबजी दूरि देस विराजनो छे, तिणे करी दरसनरी अन्तराय भरपूर छे । धन्य है वे देस-नगर-पुर-पाटणपोषदसाला जहां श्रीपूज्यजी साहिबरो आहार-विहार-सकलाचार हुवें छ । और धन्य हैं वे नर-नार श्रीमहाराजजी साहिबरो मुखकमल निरख हीयें हरख, चरनकमलरी सेवा-नमन सुनिरन्तर करे हें । तथा पूज्यंजीरी देसनां अमृतधारा समान उपयोगसहित सुणें हें । अगारपणों छांडीने अणगारपणों आदरें हैं, तथा देसे पापपरिहार करे हे तिकारा अवतार संसारमाही धन्य हें। ..
मेरे श्रीमहाराजसाहिबरे दरसनरी हाल अन्तराय उदै छे । जे दिवस . महाराज साहिबरो दरसन होसी, श्रीमुखनी वांनी सुंणसु तीको दिवस. धन्य मांनसुं। पिण मो सरीखा पापीने हजुरसाहिबरो दरसन मिलनो कठिन हैं । सो महाराज क्रपा करि दरसन वहिलो दिरावसो तो घना जीवारो उद्धार होसी।
दोहा नाथ-विहुना सैन्य मुं, मात-विहुनां बाल ।
संघ अठारो होय रहो, कीजे तुरत संभाल ॥१॥
और छेमासी संमंधी माहें कोई लिखने पढनें मुको असातना अविनय हुवा होई सो हाथ जोड सीस नमाय कर खमार्बु छु, श्रीहजूर साहिब क्रपानाथ क्रपा करि के खमज्यो । छोरु के अवगुण पर निघामन राखजो ।
और हजूर साहिब तो परम उपगारी हो । हजूर की सेवा-चाकरी कुछ बनें नहीं । हजूर साहिबरे गुण हजार, मुख करि लीखुं सो लिखने में नहीं आवें ।
दोहा श्रीगुरु नाथ! क्रपा करी, अवधारो मुझ वात । डूबत हूं भवकूप में, वेगे पकडो हात ॥१॥ गति चारुं ही भटकतें, वीते काल अनंत । महामोह में फसि रह्यों, कबहूं न पायो अंत ॥२॥
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