Book Title: Anusandhan 2014 08 SrNo 64
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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२०
अनुसन्धान-६४
जैनधरम में दीपता, मोटा हों मुनिराज । चिरंजीवो चिरकाल लग, सब की करो सहाय ॥१७॥ . धन धन प्रभू तुम नाम हे, धन धन हे तुम ताय । धन माता तुम जनमीया, प्रेमें प्रणमुं पाय ॥१८॥ कार्य(या?) जांनो कारमी, नहीं माया लवलेस । आहार तनी नहीं लालसी, सांचौ साधू वेस ॥१९॥ तुम दरसन करते थके, जाये भव के पाप । . तिन कारण वीनती करूं, वेग पधारो आप ॥२०॥ वार वार विनती लिखू, लिखत न आवें पार । पांख होय तो उड मिलूं, न करूं ढील लगार ॥२१॥ इह्या रह्यौ परवसपणें, नहीं सुइच्छाचारूं । अन्तराय दूरे टलें, तव देखुं दीदार(रु) ॥२२॥ नित वंदु ईहां ही रही, प्रह उगमते सूर । धरमलाभ प्रभु दीजियो, पामुं सुख भरपूर ॥२३॥ मुझ कू निरगुंन जांनिकें, मति विसारो मुनि संत । प्रभु तुम सेवक हैं बहु, बडे बडे गुनवंत ॥२४॥ क्रपा धरम सनेह की, रखीयो जगगुरु भांण । प्रेम नीजर करी देखीयौ, सेवक हम कू जांण ॥२५॥ सुखसाता संजम तणी, वरतें सदा समाध । सेवक अपनो जांन के, लिखज्यौ करकें याद ॥२६॥ पाछा कागद लिखत री, नही आपरे रीत । श्रावक जो कोई चतुर होय, जेहि लिखें सुभ रीत |२७|| मगनीरांम वीनती लिखी, निज आतम के काज । ... ये में जो कछू न्यून होय, सो खमज्यौ महाराज ॥२८॥ साधर्मी सवसं करे, मगनीरांम प्रणांम । क्रपा धरम सनेह की, रखीये बहु गुण जांण ॥२९॥
॥ इतिश्रीविनयपत्रका समाप्ता ॥ शुभं भवतु ॥
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