Book Title: Anusandhan 2014 08 SrNo 64
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 284
________________ जुलाई - २०१४ २६१ जन्म-मरण करते थके, पायो नर अवतार । 'ताहैं सफल कीनों नहीं, हार गयो निरधार ॥३॥ भक्ति करी नही देव की, कीयो न परउपगार । आतम हित कीनों नहीं, लग्यौ लोभ के लार ॥४॥ उलज्यों बह जंजाल में, राग-द्वेष मन लाय । कहौ स्वामी कैसे कीयें, चेतन निरमल थाय ॥५॥ मो मन चिंता अति घनी, सोचत हूं दिनरात । ताहै उपाय विचार के, लिख भेजो गुरु नाथ! ॥६॥ जन्म-मरन सबही टलें, वसुं मुक्ती में जाय । इतनी क्रपा कीजियो, सौख्यविजय मुनिराय! ॥७॥ मुनिवर परम दयाल हो, दीसौ बहु गुणवांन । तुम गुंन कों. नहीं लिख सकें, लिखु लेस अनुमान |८|| पांचौ इंद्री वस करौ, सुमति पंच प्रकार । नमुं ऐसें मुनिराज कू, पंचमहाव्रतधार ॥९॥ षट आवश्यक करनी करौ, जीवदया प्रतिपाल । नमुं ऐसें मुनिराज कुं, प्रगटे जगतदयाल ॥१०॥ दोषन सबही टालिकें, धरौ सुआतमध्यांन । नमुं ऐसें मुनिराज कुं, साचें संयमवांन ॥११॥ सोधत हो निज ब्रह्म कुं, महालब्धभण्डार । नमुं ऐसें मुनिराज कुं, मुक्तिपंथदातार ॥१२॥ निरमल करी निज आतमा, ध्यावत हो सुभ ध्यांन । भव्य जीव के कारनें, प्रगटे गुंण की खांन ॥१३॥ मुनिवर श्रीमहाराजजी, तुम गुंन अगम अपार । . तजी कनक अरु कामनी, धन धन तसु अवतार ॥१४॥ महाअतिसयवंत हो, बहु अवसर के जांण । प्रभुमुखसो वांनी खिरें, प्रत्यक्ष अमृत समान ॥१५॥ भव्यजीव अतिवरुकें(डें?), करतें बहु धर्मध्यांन । तज कुमति सुमति लहें, पावें पद निर्वांन ॥१६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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