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जुलाई - २०१४
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लक्ष्मणपुर्यां विराजमानं श्रीजिनचन्द्रसूरिं प्रति जयपुरनगरत: कमलसुन्दरगणिप्रेषितं विज्ञप्तिज्ञप्तिपात्रं पत्रम्
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• सं. म. विनयसागर
विज्ञप्तिपत्र - लेखन मौलिक, स्वतन्त्र एवं जैन विधा है । प्राकृत, संस्कृत और देश्य भाषाओं में इसकी रचना की जाती थी और वह गद्य-पद्य मिश्रित भी होती थी । पढ़ते हुए ऐसा आभास होता था कि स्वतन्त्र काव्य हो या लघु काव्य या चम्पू काव्य हो । सभी प्रकार से अलङ्कारों से वेष्टित यह विधा १५वीं शताब्दी से चली आ रही है और आज तक चल रही है । आज का स्वरूप अवश्य बदल गया है । इस विधा में लिखित शताधिक विज्ञप्तिपत्र प्राप्त हो चुके हैं । कोई छोटे से छोटे हैं तो कोई बड़े से बड़े १०८ फिट लम्बे | कई चित्रित हैं तो कई अचित्रित । कईयों में नगर की वीथियों का, बाजारों का, गन्तव्य स्थलों का विशेष वर्णन होता था और कईयों में पूज्य श्री का, स्थान का, प्रेषणस्थान का और समाचारों का वर्णन होता था । यह विज्ञप्तिपत्र अचित्रित और केवल पूज्यश्री का, दोनों नगर - स्थानों का और समाचारों का संकलन मात्र है ।
प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्र में श्रीजिनरङ्गसूरिशाखा के छठे पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरि का वर्णन है । इनके सम्बन्ध में खरतरगच्छ बृहद् इतिहास पृ. ३१२- ३१३ में परिचय छपा है वह पठनीय है ।
विज्ञप्तिपत्र का वर्ण्य विषय :
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प्रस्तुत विज्ञप्तिपत्र में वर्ण्य विषय निम्न है । प्रारम्भ के १ - ११ दोहा में पञ्चतीर्थी - श्री ऋषभ, शान्ति, पार्श्व और महावीर को नमस्कार कर १२वें दोहे से सत्रह तक स्वस्ति से प्रारम्भ कर श्रीजिनचन्द्रसूरि जो कि कौशल देश के लक्ष्मणपुर में विराज रहे हैं उनको यह पत्र लिखा गया है । तत्पश्चात् गुरु• महाराज के चरणों से पवित्रित श्रीलक्ष्मणपुरी का वर्णन निम्न छन्दों में किया गया है -
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