Book Title: Anusandhan 2006 09 SrNo 37
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 14
________________ September-2006 एएसुं नालोए आलोएज्जासु तव्विवक्खेसु । दव्वेसु धन्नमाईसु खीरदुमाईसु आलोए ॥२६॥ उच्छवणे सालिवणे चेइयहरे चेव होइ खेत्तम्मि । गंभीरसाणुणाए पयाहिणा वनउदए य ॥२७॥ पुव्वुत्तसेसतिहिरिक्ख-करणजोगाइएसु कालम्मि । भावे मणाइपसमो उच्चाइठिएसु य गहेसु ॥२८॥ पाईणो दीणमुहो चेइयत्तो य सुहनिसन्नो य । आलोयणं पडिच्छइ परोवयारेक्करसियमणो ॥२९॥ दारं ॥ जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को उ ॥३०॥ नाणाइपंचरूवस्स भयवओ सुविहियाणुचिन्नस्स । आयारस्सइयारा आलोएयव्वया हुंति ॥३१।। इयरे य' सुयाईया आलोयाविति ते पुण तिक्खुत्तो । सरिसत्थअपलिउंचिय-आगाराईहिं नाऊण ॥३२॥ आगारेहिं सरेहि पुव्वावरवाहयाहिं य गिराहिं । पलिउंचियस्सरूवं कुसला जायंति पाएणं ॥३३॥दारं ॥ दसविहपायच्छित्तं आलोयणमाइयं मुणेयव्वं । जो तत्थ जेण सुज्झइ अइयारो, तं तदरिहं तु ॥३४॥ दारं ॥ आलोयणाए पुव्वं जे चेव गुणा य वन्निया इहई । तमणंतरफलमुत्तं परंपरं सासओ मोक्खो ॥३५।। आलोचनाविधानं समाप्तम् ।छ।। १. ज्ञानाद्याचाराः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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