Book Title: Anusandhan 2006 09 SrNo 37
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 68
________________ September-2006 * कृष्ण ने खुद के स्वरूप में यह अत्यद्भुत दर्शन करवाया । यद्यपि जैन दर्शनानुसार केवली 'लोकपूरण समुद्धात' के द्वारा अपने आत्मप्रदेश समूचे विश्व में फैला सकते हैं, तथापि यह केवल सैद्धान्तिक मान्यता है । इसका दर्शन वे अन्यों को नहीं करवाते । * कृष्ण के कथनानुसार यह दर्शन केवल ईश्वर की 'अनन्य भक्ति' से होता है । खुद गीता की दृष्टि से भी अर्जुन कृष्ण का अनन्य भक्त नहीं सखा, बंधु, सारथी है। जैन दर्शन के अनुसार किसी भी प्रकार का ज्ञान खुद का पुरुषार्थ तथा आत्मशुद्धि पर निर्भर है, भक्ति पर नहीं । * कृष्ण के कथनानुसार विश्वदर्शन में 'ईशकृपा का बल' अंतर्भूत होता है । जैन दर्शनानुसार 'आत्मबल' ही सर्वश्रेष्ठ है । आत्मश्रद्धा, सम्यक्ज्ञान तथा शुद्ध आचरण से ही सब संभव है, गुरुकृपा आदि से नहीं । गीता का विश्वरूपदर्शन अनेक शोधकर्ताओं ने प्रक्षेप-स्वरूप ही माना है । वैदिक परंपरामें इस स्वरूप के दर्शन की जो महत्ता है, उसी के कारण यह गीता में समाविष्ट हुआ है । तार्किक संगति का दृष्टि से देखा जाय तो युद्धभूमि पर इस प्रकार अद्भुत-दर्शन करवा के अर्जुन को युद्ध-प्रेरित करना सुसंगत नहीं लगता । * जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । इस दृष्टि से विश्वरूपदर्शन पूर्णतः असत्य है ऐसा भी हम मान नहीं सकते । उसमें भी शक्यता के कुछ अंश तो हो सकते हैं । जैन दर्शन ने वासुदेव कृष्ण के व्यक्तित्व को और यौगिक शक्ति को मान्यता दी है । हम पहले ही देख चुके हैं कि जैन इतिहास-पुराणों में भी अद्भुतता का दर्शन कई बार होता है । सैद्धान्तिक दृष्टि से तो नहीं लेकिन काव्यात्मकता, अद्भुतता तथा भक्तिमार्ग की प्रभावना की दृष्टि से ही इस विश्वरूप दर्शन को हम देख सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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