Book Title: Anusandhan 2006 09 SrNo 37
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 60
________________ September-2006 55 इस आंशिक विश्वरूपदर्शन के बारे में गीता की दृष्टि से हम आपत्ति उठा नहीं सकते क्योंकि अर्जुन को जितना भी दिखाई दिया वह कृष्ण की मर्जी के अनुसार और वह भी अर्जुन की तात्कालीन दिव्यदृष्टि की मर्यादा के अनुसार ही है । कृष्ण ने यथार्थ रूप में समूचा विश्वदर्शन कराया है या नहीं इसके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते । लेकिन अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा देने हेतु जितना विश्वदर्शन करवाना आवश्यक था उतना कृष्ण ने जरूर करवाया है ।१८ जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यावहारिक हेतु साध्य करने के लिए वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अपरिपक्व जीव को आंशिक विश्वरूपदर्शन करवाना यह घटना तीर्थंकर, केवली सर्वज्ञ आदि वीतरागी व्यक्तियों के बारे में केवल असंभवनीय है। (६) उग्र विश्वरूप देखकर अर्जुन का भयभीत तथा व्यथित होना ग्यारहवें अध्यायके ३२, ३३ तथा ३४ इन श्लोकों में उस विराट पुरुष के रौद्र रूप का और असहनीय तेज का वर्णन अर्जुन करता है । अन्याय योद्धाओं को गिरिनदी के समान मृत्युमुख में प्रवाहित देखकर अर्जुन घबरा उठता है, काँपने लगता है और व्यथित भी होता है। जैन दर्शन की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि अगर किसी सर्वज्ञ या केवली के ज्ञानोपयोग से विश्व का यथार्थ ज्ञान होता है, तो वह उस वस्तुनिष्ठ सत्य को सहजता से स्वीकार करते हैं। किसी भी प्रकार की घबराहट या खिन्नता की गुंजाईश भी नहीं होती । हम इतना ही कह सकते हैं कि वास्तविक पात्रता न होने के कारण, तथा कृष्ण की कृपा से युद्ध के भयावह रूप का दर्शन होने से अर्जुन घबरा गया है। केवली या अवधिज्ञानी ज्यादा से ज्यादा ऐसे युद्धपरिणाम शब्दों में बयान कर सकते हैं, प्रत्यक्ष दिखाते नहीं (७) कृष्ण द्वारा कालस्वरूप-कथन और युद्धप्रवृत्त करना (अ) भयभीत अर्जुन विराट पुरुष का उग्ररूप देखकर भयभीत होकर कृष्ण से पूछता है, 'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो ?' इसके बाद कृष्ण विराट पुरुष के रूप में उसे बताता है कि, 'कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः ।' इस काल को भयानक रौद्र रूपवाले, संहारक, भीषण दंष्ट्रावाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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