Book Title: Anusandhan 2006 09 SrNo 37
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 43
________________ राजगच्छीय धर्मघोषवंशीय श्रीहरिकलशयति-विरचिता मेदपाटदेश-तीर्थमाला सं० म० विनयसागर जिनेश्वरों के कल्याणकों से पवित्रित तीर्थ भूमि हो, चाहे अतिशय क्षेत्र हो और चाहे जिनमन्दिर हो, उनकी यात्रा करने की अभिलाषा सभी लोगों को होती है । तीर्थों की यात्रा कर भावोल्लसित होकर भक्तगण उस तीर्थस्थान की भूमि को जिनेश्वरों से पवित्र होने के कारण स्पर्श कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं । तीर्थस्थ मन्दिरों में जिनबिम्बों की अर्चना, पूजा और प्रवर्द्धमान भावों से स्तवना कर, शुद्ध पुण्य भावों को अजित कर कर्म निर्जरा भी करते हैं । उच्चतम पद प्राप्त करने का बन्धन भी बाँधते हैं । पूर्व समय में तीर्थयात्रा की सुविधा सबके लिए सम्भव नहीं थी, क्योंकि कण्टकाकीर्ण और बीहड मार्ग में उपद्रवों का भय रहता था, लूटपाट का भय रहता था । अतः किसी भव्य संघपति के संघ में ही लोग सम्मिलित होकर तीर्थयात्रा किया करते थे जो जीवन में प्रायः कर एकदो बार ही सम्भव हो पाती थी । जैनाचार्यों और जैनमुनियों ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आसाम, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश आदि क्षेत्रों में स्थित तीर्थों की यात्रा कर अपने जीवन को सफल भी किया था । जिनवर्धनसूरि और जयसागरोपाध्याय आदि से लेकर १९वीं शताब्दी तक अनेकों ने तीर्थमालाएँ भी लिखी हैं । शत्रुञ्जय, गिरनार, आबू,खम्भात, सूरत आदि की स्वतन्त्र तीर्थमालाएँ भी मिलती हैं। इन तीर्थमालाओं में तीर्थों का पूर्ण वर्णन करते हुए तत्रस्थ जिनमन्दिरों की संख्या भी प्राप्त होती है । कई-कई तीर्थमालाओं में क्षेत्रों की दूरियाँ भी लिखी गई हैं और कई में मन्दिरों के अतिरिक्त बिम्बों की संख्या भी लिखी गई हैं । इस तीर्थमाला में केवल भारत के एक प्रदेश का हिस्सा मेदपाटदेश (मेवाड़) की तीर्थमाला लिखी गई है । इसी तीर्थमाला में वर्णित विषय का आगे विश्लेषण किया जाएगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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