Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 13
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
यतिशिक्षापञ्चाशिका ॥ जयइ जिणसासणमिणं अप्पडिहयथिरपयावदिप्पंतं । दूसमकाले वि सया सहावसिद्धं तिहुअणे वि पढमं नमंसिअव्वो जिणागमो जस्सं इह पभावाओ। सुहमाण बायराणं भावाणं नज्जइ सरूवं जह जीवो भमइ भवं किलिट्ठगुरुकम्मबंधणेहितो। तन्निज्जरावि[य]जहा, जाइ सिवं संवरगुणड्ढो इच्चाइ जओ नज्जइ सवित्थरं तं सरेह सिद्धतं सविवेसं सरह गुरं(5) जस्स पसाया भवे सो वि गुरुसेवा चेव फुडं आयारंगस्स पढमसुत्तम्मि । इअ नाउं निअगुरुसेवणम्मि कह सीअसि सकन !? ता सोम ! इमं जाणिअ गुरुणो आराहणं अइगरिहूं। इह-परलोअसिरीणं कारणमिणमो विआण तुमं रुट्ठस्स तिहुआण]स्स वि दुग्गइगमणं न होइ ते जीव ! । तुट्टे वि तिहु[अ]णे लहसि नेव कइयावि सुगइपहं । जइ ते रुट्ठो अप्पा तो तं दुग्गइपहं धुवं नेइ । अह तुट्ठो सो कहमवि परमपयं पि हु सुहं नेइ जइ तुह गुणरागाउ(ओ) संथुणइ नमसई इहं लोओ। न य तुज्झणुरागाओ कह तम्मि तुमं वहसि रागं? जइ वि न कीरइ रोसो कह रागो तत्थ कीरए जीव ! ? । जो लेइ त(तु)ह गुणे पर-गुणिक्कबद्धायरो धिट्ठो जो गिन्हइ तुह दोसे दुहजणए दोसगहणतल्लिच्छो । जइ कुणसि नेव रागं कह रोसो जुज्जए तत्थ ?
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66