Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 13
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ ___ 29 29 चंद्र परे उज्वल कांति पाषाण दल मंडाव्यां रे दूर देस थी आंणियां शिलावट मन भाव्यां रे ॥८॥ ध० । पंचसूत्तर सित्तेर भागनि पडिमा जिननी भरावि रे करण चरणनि सित्तरि पांमवा जेह जणावि रे ॥९॥ ध० । मांन प्रमाणे बिंब तें सवि जननें सुखदाइ रें संपूरण मूरति थई रतनसा हरख वधाइ रे ॥१०॥ ध० । कुमार यक्ष चंडा देवि वासुपूज्यपद-रागिरे टालें विघन मांणिभद्रजि दिई सांति पुष्टि सोभागि रे ॥११॥ ध० । (॥ भरत नृप भावस्यूं ए - ए देशी ।) हवे प्रतिष्ठा कारणे ए पुरव सन्मुख सार तो वेदिका सुभ रचि ए। दोढ हाथ उन्नत भलि ए पुरीत वस्तु उदार तो वे० ॥१॥ पंच स्वस्तिक श्रीफल ठवो ए पंचरतन भूपीठ तो वे०। अष्ट सुगंधे विलेपीयो ए करीइं धूप उकिट्ठ तो ॥२॥ वे० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66