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अनुसंधान
मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसूत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन,माहिती वगेरेनी पत्रिका
संकलनकार : आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि हरिवल्लभ भायाणी
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શ્રી હેમચંઢાચાર્ચ.
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
JER-Ecreaten-AVORRETREE
CAREERASADORocay
Anjalinenerally.org
Page #2
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त , ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' ।
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि
हरिवल्लभ भायाणी
D
શ્રી હેમચંટાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदावाद १९९९ ..
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संपर्क :
प्रकाशक :
किंमत :
प्राप्तिस्थान :
मुद्रक
अनुसंधान १३
हरिवल्लभ
भायाणी
२५ / २, विमानगर, सेटेलाईट रोड,
अहमदावाद
३८० ०१५.
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदावाद, १९९९
रू. ३५-००
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अहमदावाद
३८०००१.
राकेश टाइपो - डुप्लिकेटींग वर्कस राकेशभाई हर्षदभाई शाह २७२, सेलर, बी. जी. टावर्स,
दिल्ली दरवाजा बहार,
अहमदावाद
(फोन : ६४४९२००)
३८०००४.
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सम्पादकीय निवेदन
ताजेतरमा परिसथी फ्रेंच विदुषी बहेनो मेडम कॅलेट कैय्या तथा डॉ. नलिनी बलबीर भारतप्रवासे आव्यां हतां. मुलाकात दरम्यान थयेली वातचीतमां अनुसंधान'ना प्रकाशन तेम ज तेमां प्रकाशित थती मूल्यवान सामग्री परत्वे ऊंडा परितोषनी लागणी तेमणे प्रगट करी हती. स्वाभाविक रीते ज जैनोलोजी अने प्राकृत वगेरे भाषाओना तज्ज्ञोनी आवी लागणीथी अमने पण अनहद संतोष अनुभवायो.
___ पाछला थोडाक अंकोनी तुलनाए प्रस्तुत अंक थोडो नाना कदनो थयो छे. तेमां बहारथी प्राप्त थयेल सामग्रीनी अल्पता तेम ज संपादकोनी केटलीक व्यस्तता कारणभूत छे.
-- संपादको
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अनुक्रम १. कामरूपपञ्चाशिका
विजयशीलचन्द्रसूरि १-१२ २. श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरिकृतयतिशिक्षापञ्चाशिका विजयशीलचन्द्रसूरि १३-१८ ३. अज्ञातकर्तृकचतुर्विंशतिजिननमस्कार - विजयशीलचन्द्रसूरि १९-२५
काव्यो श्रीवासुपूज्यस्वामी - प्रतिष्ठाविधिसूचक सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री २६-४९
स्तवन ५. प्राकृत मुक्तक कविताना एक अमूल्य हरिवल्लभ भायाले ५०-५२
ग्रंथनी उपलब्धि - तारागण केटलाक अल्पज्ञात के अज्ञात मूळना हरिवल्लभ भायाणी गुजराती शब्दप्रयोगोनी चर्चा
४.
५३-५६
७.
H. C. Bhayani
५७-५९
Sporadic Notes on Some Terms from the Nrttaratnāvali
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कामरूपपञ्चाशिका
- विजयशीलचन्द्रसूरि
प्रस्तुत कृति योगशास्त्र तेमज स्वरोदयशास्त्रने लगती, प्राकृत भाषानी एक अपूर्व कृति होवानुं मालूम पडे छे. नाडीओ अने तत्त्वो वगेरेनुं ज्ञान तेमज तेना पर अंकुश प्राप्त करनार मनुष्यने केवी केवी सिद्धिओ तथा फलनी प्राप्ति थाय छे, तेनुं आमां विशद निरूपण थयुं छे. आने 'गाहापंचासिया' (गाथा पंचाशिका) (गा. ४, क्षे.गा. ८८/३) तरीके कृतिमां ओळखावी छे. आना कर्ता कोण हशे, ते हजी स्पष्ट नथी थतुं. परंतु, गा. ४ मां 'जोइणिविंद-योगिवृन्द' एवो, गा. २३, २७, ४५, क्षे.गा. ८८/१, आमां 'जोइविंद-योगिवृन्द' एवो क्षे.गा. ८८/२मां 'कामरूपपीठनी योगिनी' एवो, क्षे.गा. ८८/२ मां योगिनीवृंद' एवो योगिनी-'योगीन्द्रकथित' एवो उल्लेख छे, ते जोतां कामरूप-प्रदेशमा वर्तती कोई योगविद्या-पीठना योगी/योगिनीओए रचेल आ रचना हशे तेवी अटकळ थई शके तेम छे.
आ विषय मारा माटे तद्दन अज्ञात छे. मात्र प्राकृत कृति होवाने लीधे ज एना प्रति ध्यान आकर्षायु, अने भाषानी दृष्टिए आवड्युं तेवू संपादन करी अहीं मूकी छे. आना विषय उपर विशेष प्रकाश तो ते विषयना तज्ज्ञो ज पाडी शके.
मारी पासे आनी २ हस्तप्रतिओ हती, तेना आधारे आ वाचना तैयार करी छे.
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॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
कामरूपपञ्चाशिका ॥ सो जयउ जस्स सयलं तिहुयणमाबंभनाहिमज्झत्थं । विप्फुरइ नहसमग्गं नाहंग्गे ज्झाणचिंताए चिंतियमित्ते सयलं तिहुयणमाबंभभुयणमज्झत्थं । नाइज्जइ जेण फुडं तं चिय नाणं पवक्खामि नाणं तिविहपयारं मि(मी)सिय-संकेय-केवलं भणियं । इड-पिंगल-मज्झत्थं नाइज्झइ गुरूवएसेणं इय कामरूवसंठिय - जोइणिविदेण जं फुडं दिटुं। दिव्वं नाणपहाणं गाहापंचासियं नाम दूयलक्खणस्स पढमं बीयं कालस्स लक्खवंचणयं । विसनिग्गहणंतइयं सिवतत्तं कामतत्तं च दूरा भूचंकमणं दूरा वसणं च दंसणं दूरा। मंतबलसामत्थं आइट्ठी विविहसिद्धि(द्धी)ओ एताहे बहुभेयं भूबलसरसत्थकालविन्नाणं । तिविहपयारं ज्झाणं कहामि फुडं निसामेह तव तविए जव जविए बहुकालेण हुंति सिद्धयरा । निट्ठहियसयलकम्म ज्झाणेणं य तक्खणा सिद्धी सियवन्ने विसहरणं रत्तावन्नेण हवइ आइट्ठी। थंभइ पीयलवन्नं मारइ तह किण्हज्झाणेण वरुणहुयासणमज्झे कुंडलवलियाई भुयंगरूवेण। सयलब्भासियज्झाणे जाणिज्जइ सच्छमंत्राओ नाहिमूले सत्तिकुंडलि तडितरलतेयभासंती। जो ज्झायइ अणवरयं सो जाणइ सयलतियलोयं
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
॥११॥
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२६
. ॥१२॥
॥१३॥
॥१४॥
३२
॥१५॥
॥१६॥
कोयंडचक्कमज्झे अइयाँ रविकोडितेयभासाए । जो ज्झायइ अणवरयं सुच्चिय मयणो न संदेहो सिंदूरारुणतेयं जं जं चिंतेइ तरणिसंकासं। तडितरलतेयनांसं आणइ दूरट्ठिया नारी जवकुसुमसंनिहाणं ज्झाणं तियलोयसयलसरवंतं । जो ज्झायइ अणवरयं सो पावइ जुवइसंघायं सवरंरवन्नरूच्छं ईसरषिंडिंदुबिंदुसोहिल्लं। जो जवइ लक्खविहिणा सो पावइ चिंतिया नारी ससिठाणे विसहरणं सूरो मारेइ तिहुयणं सयलं । पावेइ सयलसिद्धी रविससिमज्झट्ठिए नूण ससिकोडितरलतेया वरिसंती बंभमंडले सत्ती। अवहरइ सयलदुरियं जरमरणं वाहिसंघायं अजरामरे सुचक्के हंसं ठविऊण सुन्नभावेण । नासइ सुन्नेण धुवं जरमरणं वाहिसंघाओ सुन्नं न होइ सुन्नं दीसइ सयलं पि तिहुयणं सुन्नं । अवहरइ पावपुन्नं सुन्नसहावे गओ अप्पा सुन्नट्ठिए सुसुन्नं भरिए भरियं च तिहुयणं सयलं । सूर-मयंकग्गामे सयलकलालंकियं भुवणं अक्को मयंकखित्ते बारह संकमणसट्ठिघडियाओ। वहइ दिणं अह राई . एक्कक्कं पंच घडियाओ पंच पहा दो मग्गा इक्को चिय वहइ तिहुयणे सयले । जत्थ गओ तहिं अच्छइ सुन्ने सुन्नं वियाणाहि
॥१७॥
॥१८॥
॥१९॥
॥२०॥
॥२१॥
॥२२॥
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विसम-सम- उभयपक्खा नियनियकाले जाणह
४८
ससिखित्ते समवन्नो
५०
जत्थत्थि तत्थ सहलं
पुच्छइ सुन्नम्म ठिओ नत्थि ति (त्ति) तं वियाणह
नट्टं दठ्ठे मूयं पहरिय पुच्छर जियम्मि द्विओ
पढमं चिय सुनहरे
मुच्छं गओ वि जीवइ
५६
..पढमं जीयाणे पच्छा साह ओ
जीवपवेसे लाहो सहलं पवेसले
६२
पुट्ठिट्ठिएण सूरो रवि-ससिखित्तं नाउं
असि-मसि-किसिवाणिज्जे
जइ पुच्छइ होइ फलं
[ भरिएसु होइ भरियं
सूरमयंके तह
गब्भर्निमित्ते पुच्छइ सूरेण य होइ नरो
सज्जीवे चिरजीवो संगमपवेसयाले
४७
रवि-ससि मुणिऊण दाहिणं इयरं । निदि (द्दि) द्वं जोइविंदेण
सूरे विसमक्खरो हवइ जइया ।
सुन्ने सुन्नं वियाणेह
५१
दूओ अस्थि ति (त्ति) भणइ कज्जाई । होइ धुवं जीवठाणेसु
जरियं च वाहिसंभूयं ।
अस्थि त्ति अ [तं ] (?) विआणेहि
पच्छा जीवेसु जइ हवइ दूओ । निद्दि जोइविंदेण
५७
सुन्नम्म जइ हवइ दूओ । जस्स निमित्ते कया पन्हा
६०
हवइ न लाहो विनिग्गए सासे । निग्गमणे मरइ निब्भंतं
६३
अहवा पुरयम्मि संठिओ चंदो । जीयाजीयं वियाहि
६५
दिक्खा - वीवाह जीवसंठाणे । सुहाणी वाणी
६८
रित्तं रित्तेसु नत्थि संदेहो । जीयाजीयं वियाणेहि
संसि (स) हरदा (ठा) णेसु संठिया जुवई ।
इत्थ वियप्पो न कायव्वो
あの
मरइ धुवं सुन्नठाणपुच्छाए । जीयाजि (जी) यं वियाणेह
॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
॥२६॥
५५
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॥२८ !
॥२९॥
६६
॥३०॥
६०.
॥३१॥
॥३२॥]
||३२||
||३३||
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5
॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
॥३८॥
अह परचक्कागमणं नत्थि त्ति सुन्नट्ठा(ठा)णे अहवा जीवनिमित्ते कहवि फुडं निभंतं जइ कहवि हवइ सूरो मासपमाणेण तहा मासेण व छम्मासं दह राये णव[णव] दुन्नि दिणे दोवरिसं अट्ठदिणेच्छवरिसं एणकमेण य विहिणा सो लहइ सयलसिद्धी अहवा नियपडिबिंबं नियच्छा(छा)यादिट्ठीए पिच्छइ नहमज्झगयं जाणिज्जइ तेण फुडं असिरेण च छम्मासं दोवरिसेण व मरणं जो पु(पि)च्छइ संपुन्नं सो पामई सुहसिद्धी हरिणो अहव विरंची तह जाणिज्जइ मरणं
होइ मयंकम्मि वारए सूरो। जीवहरे होइ निब्भंतं कालं नाउण परह-अप्पाणं। निदि(द्दि)टुं जोइविंदेण दिणमिक्कं पंचराइयं पक्खं। जाणह कालं निसामेह तेमासं मरइ तह व पक्खेण। पक्खिक्कं पंचराएण तेवरिसं इक्कराइमाणेण। सूरपवाहे वियाणेहि निसिनाहो जस्स सकंमइ देहे। धणकणगसमिद्धिया जुवई नहमज्झे जो वि पिक्खए नूणं । जारिसियो तारिसं रूवं पुरिसं सुरूवफलिहसंकासं । कालं छम्मासियं नृणं जंघाहीणेण मरइ वरिसेण । नाइज्जइ बाहुहीणेण पुरिसं[सं]सुद्धफलहसंकासं। अजरामरसासयं ठाणं सरिसा निवडंति जत्थ गयणतले । सत्ताहे नत्थि संदेहो
॥३९॥
॥४०॥
॥४१॥
॥४२॥
.
॥४३॥
॥४४॥
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जो पिक्खइ अप्पाणं पक्खिक्केण य मरणं
इय जाणिऊण कालं अमुहियकालसहावे
११०
११२
सुन्ने अमियमयंके
११४
जो ज्झाइ अणवरयं
११६
गुरुमिं-गंठिनाही
कोदंडे नमज्झे
ससिकोडितरलतेया
ज्झाइयमाणा गरलं
१२५
सिंदूरारुणतेयं तिक्कोणं ज्झाणेण ये कुणय (इ) वसं
१२६
अट्ठदलं सियवन्नं
नाहीमज्झम्मि गयं
१२२
हंसासम्म हंसो रविकोडितेयभासं
१३०
गलबहुललोलतुहिणं चिंतिज्जइ कंठयले
१३२
तत्तग्गिकणयतेयं ज्झाइज्जइ चउवन्नं
बंभकुडीए कुम्मो
थंभइ जल-जलण-तुरंग - गयभाविउ (ओ) नूणं
१२.३
भासंति (ती) बंभमंडले सत्ती ।
१३३
6
१०७
नियसिरहीणं च दप्पणे सहसा । निद्दि जोइविंदेण
१०९
पच्छा कालस्स वंचणं कुणह । किं कीरइ कालचिताए
१११
वरिसंतो ज्झाणलक्खाओ । सो च्चिय कालं निवारेड
११७
हियए कंठेसु तह य नासग्गे । जाणिज्जइ ज्झाणलक्खाओ
११९.
१२०
दिप्पंतं पुहइमंडलं मज्झे । वज्र्ज्जकं पढमचक्केसु
पीडिज्जतो वि कणयसंकासो ।
१२४
हरइ विस कालदट्ठस्स
भगंठिमज्झत्थं । अमरवहूसिद्धिसप्पायं
१२७
१२८
पउमं चिय सुद्धफलहिसंकासं । ज्झाणेणवहरइ दुक्खाई
१२९
सो च्चिय परिठवह हिययचक्कम्मि | परिभावह सयलवावारं
१३४
वरिसंतं चंदमंडलं सलिलं । हरइ विसं कालदट्ठस्स
॥४५॥
॥४६॥
॥४७॥
॥४८॥
॥४९॥
१२१
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114811
॥५२॥
॥५३॥
114811
॥५५॥
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१३६
॥५६॥
॥५७||
॥५८॥
||५९॥
॥६०॥
ज्झह(ल)हलियतेससिहिणा कालानलकीडिपुंजसारिच्छं। ज्झाइज्जइ नासग्गे पाविज्जइ सासयं ठाणं रवि-ससिकोडिव्व पहे ज्झायह कोवंडमज्जगो अप्पा । विप्फुरइ जेण सहसा अट्ठविहो सिद्धिसंघाओ नहमंडलमज्झत्थो अप्पा नहमज्झसंठिओ सयलं । जाणइ तिविहं नाणं अणवरयं भाविओ नूणं सव्वंगो सव्वगओ सव्वं जाणेइ तिहुयणं सयलं ।। गयणंगणम्मि अप्पा भावियमित्तो वियाणेह नाहंकारं न नहं
अप्पसहावं च नत्थि वावारं । लोणं व जलविलीणं न हु हवइ पुणन्नवा सिद्धी चित्ते बद्ध बद्धो सुक्क सुक्को वि नत्थि संदेहो। विमलसहावो अप्पा मइलिज्जइ मइलिए चित्ते उंदरदट्ठफर्णिदं पिच्छइ अहिदट्ठउंदराई च। संकाबद्धसहावो मरइ धुयं नत्थि संदेहो चिंताए सुहभाओ नियनियपडिबिंबभाविदो कुसलो । अणुहूयहूयपव्वय- पच्चक्खं पइडए नाणं दूरा भूचंकमणं दूरा सवणं च दंसणं दूरा। उप(प्प)ज्जइ जत्थ धुवं सुन्नसहावे गओ अप्पा नवलक्खं नवठाणं ज्झाणं नवभावभेयसंजुत्तं । अणवरयभावियाणं पच्चक्खा होति सिद्धीओ ज्झाणेण य हरइ विसं अहवा ज्झाणेण हवइ आइट्ठी। ज्झाणेण हवइ नाणं ज्झाणं तियलोयसारवरं .
॥६
॥
॥६२॥
॥६३॥
१९५६
६४॥
॥६५॥
१५०
॥६६॥
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१५४
१५५
१५७
॥६७॥
॥६८॥
१६०
॥६९॥
॥७०॥
॥७
॥
पंचसु ठाणे बीयं
समरसभावेण भाविओ नूणं । दूरट्ठिउँ(ओ) विआणइ जोयणसयसंठिओं नारी थंभइ लयारबीयं मायाबीयं च कुणइ आइट्ठी। दावइ एव लपिंडे पंचसु ठाणेसुमब्भसिओ छट्ठसरेण व सुन्नं सविसग्गं बिंदुनायसोहिल्लं। ज्झाइज्झइ भूमज्झे नाणाविह कुणइ सामत्थं दह अट्ठलिहिय सुन्नं पच्छिमबीयस्स फुसए नूणं । हरहसियफुक्कियाए हरइ विसं कालदट्ठस्स बीयमबीयं तिउणं मज्झगयं-जस्स नाम संपुन्नं ।। मयभिभलउम्मत्ता आणइ दूरट्ठिया नारी अक्केण खुद्दकम्मं [सुहकम्मं] कुणह-रयणिनाहेण । तत्तविसेसेण फुडं साहइ मणवंछियं सयलं पुहइ-जल-तेय-वाया सुन्नं एक्केक्कनाडिमज्झम्मि। नियनियसहावसहलं जाणिज्जइ सयलचिंताओ मज्झेण वहइ पुहइ जलणं अहमग्गसंठियं वहइ। उद्धेण वहइ तेॐ तिज्जगओ वहइ सम्मीरो सुन्नं सुन्नसहावं पंचसु तत्तेसु संठियं वहइ। अक्कमयंकेसु तहा नहतत्तं सव्वगं जाण पुहई-जलेण लाहो हाणी-महणं च तेय-पवणेण । सुन्नेण होइ सुन्नं जं सयलं चिंतियं कज्जं पुहइपहावे सूलं जीयं जल-मारुयाण चिंताए। तेयपवाहे धाउं सुन्ने सुन्नं वियाणेह
॥७२॥
१६८
॥७३॥
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॥७५॥
१७७
||७६॥
॥७७॥
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॥७८॥
१८२
॥८
॥
१८४
॥८२॥
॥८३।।
चंदेण होइ लाहो हाणी मरणं च होइ सूरेण । अक्क-मयंकेसु तहा गमणागमणं वियाणेह [दूराहाणे च दो कुणइ धुवं सयलसुहससि(मि)द्धीओ। आसन्ने आसन्नो सूरे सूरत्तणं कुणइ ।। जइ दाहिणम्मि रुद्दो सूरपवाहेसु संठिओ हवइ । -- -- -
-------- तो वं]चेविणु रुद्धो जिप्पइ सयरायरं भुयणं सूरग्गमणे बाला-घडियचउक्कम्मि सम्मुहो जिणइ । तह उद्धेण य वामा पुट्ठिट्ठि(ठि)या जिणइ रयणीए सूरपवाहे सूरो जाणइ कुज्जाई सत्तिसाहीणे । जयइ धुयं संकमणे गय[घड]भडलक्खसंघायं अमियपवाहे बाला अहवा पुरयम्मि संठिया वहइ । ठाणट्ठिओ वि समरे जयइ धुयं नत्थि संदेहो इयरबलं निज्जीवे नियबल नाऊण ठवह सज्जीवे । जीवो जिणेइ धुयं सरोअए इत्तियं सारं हरिवसहेण च सूरो धयगयठाणेसु ससहरो बलिओ। तुरिएण जिणइ सूरो निसिनाहो जिणइ सेसेसु [रविदाहिणम्मि सूरो ससहरठाणेसु संठिया सत्ती । अत्यंते उणचंदो जिणइ नरो जो गउओयरे । चंदपवाहे सत्ती सुन्नहरे अहव पच्छिमे सूरो। सुन्नगए गहनाहे थक्को ठायम्मि अखिलं जिणइ ॥] को जयइ गहियनामं रवि-ससिखित्तम्मि संठिओ दूओ। जीवहरे पढमयरो सुन्नहरे पच्छिमो जयइ
॥८४॥
॥८५॥
॥८६॥
||८७||
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२०४
[सुन्नहरे सुन्नयरं . जिए जियं च तिहुयणं सयलं । पिच्छायाले जाणह कत्थ य ठाणट्ठिओ दूओ ॥] अप्पा पवेसयाले पुच्छड् जीवेसु संठिओ कज्जं । सहलं तस्स निरुत्तं सुन्ने सुन्नं गओ जीवो
॥८८॥ [धम्मत्थकाममोक्खं कहियं गाहेहिं चउविह(ह) नाणं । ज्झाणं तिविहपयारं निद्दिटुं जोइविंदेण ॥ परमत्थेण य भणियं नाणं कामरू(रु)यपीढि जोइणिहिं । सव्वं चिय लोइ दिढं सव्वं चिय जोइसारो य ॥ इत्थं उवएसनिरुत्तं जोइणि जोइंदकहियसंसाओ । सव्वं नाणपहाणं गाहापंचासियासव्वं ॥ जो पढइ जो य निसुणइ जोइणिनाणं च तिहुयणे सयले । सो पावइ निव्वाणं लहइ जसं तिहुयणे सयले ॥] इय कामरूपसंठिय - ज्झाणं नाणं तिलोयसारयरं । भावियजणस्स दिज्जइ मा दिज्जइ भावहीणम्मि
॥८९॥ इति कामरूपपंचासिका समाप्तः ॥ शुभं भवतु कल्याणमस्तु ।
૨૦૮
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11
६१.
टिप्पणी :१. ०आबंभ० । २. नासग्गे। ३. चिंताओ। ४. ० आबंभ० । ५. मीसिय०। ६. गुरुवएसेण। ७. ० रूय०। ८. परं। ९. ०सिया नामा। १०. दूयस्स लक्खणं प०। ११. सवणं। १२. ०बलं०। १३. सयल०। १४. इत्ताहे। १५. विविह० । १६. कहमि फुडं तं नि० । १७. बहुविहकालेण। १८. सिद्धि०। १९. निद्दहइ कम्म सयलं। २०. ज्झाणे पुण तक्खणे सिद्धी। २१. ०हरणे। २२. होइ। २३. कुंडलिवलिया मु० । २४. सयमब्भा० । २५. सत्थ० । २६. ओ रवि० । २७. ० भासाओ। २८. अणुदियहं। २९. सो चिय। ३०. ० भासं। ३१. ०सरवंनं। ३२. ०रूढं। ३३. ईसरखंडेंदुनाइ- सोहिल्लं । ३४. मारइ। ३५. ट्ठिया । ३६. वरसंती। ३७. ०संघाओ। ३८. हंसो। ३९. ०भावेणं। ४०. च। ४१. अक्कमयंकछित्ते । ४२. हवइ। ४३. राए।
४४. एक्को। ४५. हवइ। ४६. वियाणेह। ४७. सुणि० । ४८. ०च्छित्ते समवण्णा। ४९. ०खरा य जयवंता। ५०. सयलं। ५१. भणिय० । ५२. जीवम्मि । ५३. अत्थि धुवं तं वियाणेह। ५४. हवइ जइ पन्हा। ५५. २७-२८ गाथयोः व्युत्क्रमः पा० प्रतौ। ५६. जीव० । ५७. हवइ जइ। ५८. तो। ५९. सो। ६०. विणिग्गए जीए। ० काले। ६२. पट्ठि० । ६३. "पुव्वाभिमुहेण ससहरो जाण" । ६४. ०छित्तंमि गए। ६५. ०णेह। ६६. २९-३० गाथयोर्युत्क्रमः पा. प्रतौ । ६७. ०वाणिज्जं। ६८. ०णेह। ६९. ३१ गाथानन्तरमेका गाथाऽधिका पा. प्रतौ, साऽत्र [] चिह्नान्तर्गता। ७०. गब्भपउए पिच्छइ । ७१. ससिरवि संठाण संठिया। ७२. सूरेण होइ पुरिसो। ७३. एत्थ। ७४. सुन्नपिच्छाए। ७५. संगह० । ७६. होइ ससी वा० । ७७. ०हरो। ७८. सरह। ७९. कहमि। ८०. निव्वाणं। ८१. जं दिटुं। ८२. मेक्कं । ८३. एकं । ८४. सास० । ८५. कालस्स परिमाणं । ८६. 'तहव' नास्ति पा. । ८७. 'राये णव मासं पक्खेक्कं० । ८८. दोनि। ८९. एकरायमाणेण। ९०. छव्वरिसं। ९१. ०णेह। ९२. 'देहे' न पा. । ९३. विमलसिध्धी । ९४. ०कणय० । ९५. नहयलमज्झम्मि पिक्खए। ९६. ०सया तारिसं जाण । ९७. पिक्खइ। ९८. सुद्धब्भफलिह० । ९९. जंघविहीणेण। १००. य। १०१. पेक्खइ। १०२. फलिह०। १०३. पावइ। १०४. हरो विरिंची। १०५. भुवणयले । १०६. जाणिज्जइ तह० । १०७. अप्पा । १०८. पक्खेण होइ म० । १०९. बंधणं। ११०. अमुणिय० । १११. चिंताओ। ११२. ०मयंको।
. ११३. अमियधारसंघाओ। ११४. ज्झायइ। ११५. चिय। ११६. अदमेह गंठनाही। ११७. इ । ११८. कोयंडे। ११९. ज्झाइज्जइ। १२०. ०मंडली० । १२१. ५० तमगाथा न पा. । १२२. ०तेयं । १२३. भासंतं बंभगंठिमूलेसु। १२४. धुयं । १२५. तिकूणं । १२६. व।
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१२९. परिवह
१३२. जल० ।
।
१३९. तह० ।
१४०.
१४५.६१
१४४. पुणं नवा । १४८. नवभेयभाव० । १४९. १५३. ०यरं ।
१२७. अमरबहुसिद्धजक्खसंघायं । १२८. पउमरायसंफासं । हिययचक्क मज्झम्मि | १३०. ०भासो । १३१. परिहरिडं सयल० । १३३. ० तुहिणा । १३४. 'वरिसंती चंदमंडले सयलं' । १३५. चिन्तिय कंठयले यं । १३६. ज्झलहलिय० । १३७. पहो । १३८. कोयंड मज्झिमो भाविदो । १४१. ० गणेसु । १४२. ०मत्तो । १४३. च । ६२-६३ गाथाः पा. न । १४६. ० चंकमणं । १४७. धुवे । विविह० । १५०. व । १५१. कुणइ । १५२. तेलोय० । १५४. ठाएसु वियं । १५५. एच (व) लयं भाव भाविदो० । १५६. ०ट्ठिया । १५७. ०ठिया । १५८. पिंडो । १५९. ठासु भासीओ । १६०. छट्ठमसरेण य । १६१. ० नाइ० । भुयमज्झे । १६३. पुच्छए । १६४. ० फुक्कियाए । १६५. ० संजुत्तं । १६६. [] एतदन्तर्गतं पा. प्रतावेव । १६७ तह य वि० । १६८. ०वाउ० । १६९. ०मज्झत्थं । १७०. ० सयलं । १७१. वामेण । १७२. वरुणं । १७३. तेओ । १७४० गओ तह हवइ वाऊ । १७५. हवइ । १७६. सूर - म० । १७७. पुहइ - जलेण य० । १७८. जं जं सयलं च चिन्तेइ । १७९. ० मारुयस्स चिंताए । १८०. धाऊ । १८१. लाहो । १८२. [] एतदन्तर्गतपाठः पा. प्रतावेव। १८३. रुद्दो । १८४. ' ८२' तमगाथा '८४' तमगाथातः पश्चात् पा. प्रतौ । सा चेत्थं
१६२.
"सूरगमिए वाला घडियचउक्कंमि समुहा जयइ ।
तह उद्धेण य वामा पुट्ठिगया जिणइ रयणीए ||८०||"
१८५. प्यवाहे । १८६. 'बाला कामंगसत्तिसाहीणा' । १८७. धुवं । १८८. [] एतद्गतं पा. । १८९. ० संघाओ. । १९०. अमय० । १९१. पुरसंमि । १९२. हवइ ।
१९३.
०ट्ठिएस समरं । १९४. धुवं । १९५ विवह । १९६. 'जीवं जिणइ सउन्नो' । १९७. चलिओ (?) । १९८. झणेसु । १९९ [] एतदन्तर्गतं गाथाद्वयमधिकं पा. प्रतौ । २००. विजइ । २०१. छित्तम्मि कुणइ पिच्छाओ । २०२. ०हरो । २०३ [] एतदन्तर्गता गाथाऽधिका पा. प्रतौ । २०४. पिच्छइ । २०५. जीएसु । २०६. गए जीए । २०७. [] एतदन्तर्गतं गाथाचतुष्कं अधिकं पा प्रतौ । २०८. नेयं गाथा पा. प्रतौ । २०९. कामरूयपंचासिया सम्मत्ता ॥
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श्री पृथ्वीचन्द्रसूरिकृत यतिशिक्षापञ्चाशिका ॥
जैन मुनिओना आचारपालननी प्रक्रिया ए एक, अन्यत्र क्यांय, कोई पण धर्म-संप्रदायमा जोवा न मळे तेवी विरल अने असामान्य बाबत छे. आत्माना उत्कर्षने ज मात्र केन्द्रमां राखीने योजायेली आ प्रक्रियामां, मानवसहज दुर्बलताने कारणे, कोई आत्मा, ढीलो के शिथिल पडी जाय, तो तेने ढंढोळवा माटे अने पुनः प्रक्रियामां स्थिर करवा माटे श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरिजी महाराजे आ लघु कृतिनुं निर्माण कर्तुं छे. फक्त पचास गाथा - प्रमाण आ कृतिमां साधुने अने तेनी चारित्र भावनाने जागृत करवा माटे जे हृदयस्पर्शी टकोरो कर्ताए करी छे, ते अत्यंत प्रेरणादायक अने जागृतिप्रेरक छे. कर्ता श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरि कया समयमां तथा कया गच्छमां थया, ते जाणी शकातुं नथी.
साधुजनोने शिक्षा आपतां आपतां तेमणे क्यांक क्यांक कहेवतोनो पण समुचित उपयोग कर्यो छे. दा.त. गाथा १२ मां " पिक्खसि नगे बलंतं, न पिक्खसे पायहिओ मूढ !" वांचतां ज,
"डुंगर जळती ला'य, देखे ते सारी जगत
पगतळ जळती ला'य, रति न सूझे राजिया !"
- विजयशीलचन्द्रसूरि
आ लोकोक्तिनी याद आवी जाय छे. तो गाथा ४९मां " नहि सुत्तनर- मुहे तरु - सिहराओ सयं फलं पडइ" ए पंक्ति,
"उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥" ए सुभाषितनी स्मृति करावी आपे छे.
कलिकाल ए पडतो काळ होई आवुं ज चाले ; क्षम्य गणाय; आम विचारनारा के बचाव करनारानी तो तेमणे भारे झाटकणी काढी छे (गा. ३१).
आ नानकडी कृति प्राकृत भाषाना अभ्यासीओ माटे जेम उपयोगी थशे, तेम साधुजनो माटे पण उपकारक बनशे ज, तेवी श्रद्धा छे.
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॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
यतिशिक्षापञ्चाशिका ॥ जयइ जिणसासणमिणं अप्पडिहयथिरपयावदिप्पंतं । दूसमकाले वि सया सहावसिद्धं तिहुअणे वि पढमं नमंसिअव्वो जिणागमो जस्सं इह पभावाओ। सुहमाण बायराणं भावाणं नज्जइ सरूवं जह जीवो भमइ भवं किलिट्ठगुरुकम्मबंधणेहितो। तन्निज्जरावि[य]जहा, जाइ सिवं संवरगुणड्ढो इच्चाइ जओ नज्जइ सवित्थरं तं सरेह सिद्धतं सविवेसं सरह गुरं(5) जस्स पसाया भवे सो वि गुरुसेवा चेव फुडं आयारंगस्स पढमसुत्तम्मि । इअ नाउं निअगुरुसेवणम्मि कह सीअसि सकन !? ता सोम ! इमं जाणिअ गुरुणो आराहणं अइगरिहूं। इह-परलोअसिरीणं कारणमिणमो विआण तुमं रुट्ठस्स तिहुआण]स्स वि दुग्गइगमणं न होइ ते जीव ! । तुट्टे वि तिहु[अ]णे लहसि नेव कइयावि सुगइपहं । जइ ते रुट्ठो अप्पा तो तं दुग्गइपहं धुवं नेइ । अह तुट्ठो सो कहमवि परमपयं पि हु सुहं नेइ जइ तुह गुणरागाउ(ओ) संथुणइ नमसई इहं लोओ। न य तुज्झणुरागाओ कह तम्मि तुमं वहसि रागं? जइ वि न कीरइ रोसो कह रागो तत्थ कीरए जीव ! ? । जो लेइ त(तु)ह गुणे पर-गुणिक्कबद्धायरो धिट्ठो जो गिन्हइ तुह दोसे दुहजणए दोसगहणतल्लिच्छो । जइ कुणसि नेव रागं कह रोसो जुज्जए तत्थ ?
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
॥११॥
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पिक्खिसि नगे बलंतं न पिक्खसे पायहिटुओ मूढ ! । जं सिक्खवसि परे, नेव कहवि कइआ वि अप्पाणं ! ॥१२॥ का नरगणणा तेसिं विअक्खणा जे उ अन्नसिक्खाए । जे निअसिक्खादक्खा नरगणणा तेसि पुरिसाणं
॥१३॥ जइ परगुणगरणेण वि गुणवंतो होसि इत्तिएणावि। ता किं न करेसि तुमं परगुणगहणं पि रे पाव ! ?
॥१४॥ जिणवयणअंजणेणं मच्छरतिमिराइं किं न अवणेसि? । अज्ज वि जम्मि वि तम्मि वि मच्छरतिमिरंधलो भमिसि! ॥१५॥ जेहिं दोसेहिं अन्ने दूससि गुणगव्विओ तुमं मूढ !। ते विहु दोसट्ठाणे किं न चयसि पाव ! धिट्ठोसि
॥१६॥ उवसमसुहारसेणं सुसीयलो किं न चिट्ठसि सया वि । किं जीव ! कसायग्गी-पलित्तदेहो सुहं लहसि ?
॥१७॥ झाणे झीणकसाए आरद्धे किं न जीव ! सिज्जिज्जा। आकेवलनाणं ; ता झाणं कुणसु सन्नाणं
॥१८॥ जह जह कसायविगमो तह तह सज्झाणपगरिसं जाण । जह जह झाणविसोही तह तह कम्मक्खओ होही
॥१९॥ सज्झाणपसायाओ सारीरं माणसं सुहं विउलं । अणुभविअ कहं छड्डिसि जं सुहगिद्धो सि[रे !] जीव! ॥२०॥ कि केवलो न चिट्ठसि विहुणिअ चिरकालबंध(?बद्ध?)संबंधं । कम्मपरमाणुरेणुं सज्झाणपचंडपवणेण ?
• ॥२१॥ बुज्झसु रे जीव ! तुमं मा मुज्झसु जिणमयं पि नाऊणं । जम्हा पुणरवि एसा सामग्गी दुल्लहा जीव !
॥२२॥
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॥२४||
॥२७॥
जइ कहमवि जीव ! तुमं जिणधम्म हारिऊण परिवडिओ। पच्छाणंतेणावि हु कालेणं जीव ! जिणधम्म
॥२३॥ पाविहिसि वा नवा तं को जाणइ ? जेण सो अइदुलंभो । इअ नाउं सिवपयसाहणेण रे ! होसु कयकिच्चो जइ अज्जवि जीव ! तुमं न होसि निअकज्ज साहगो मूढ ! । किं जिणधम्माओ वि हु अब्भहिआ का वि सामग्गी? ॥२५॥ जा लद्धा इह बोही तं हारिसि हा ! पमायमयमत्तो । पाविहिसि पाव ! पुरओ पुणो वि तं केण मुल्लेण? ॥२६॥ अन्नं च किं पडिक्खसि ? का ऊणा तुज्झ इत्थ सामग्गी ? । जं इहभवओ पुरओ भाविभवेसुं समुज्जमसि इह पत्तो वि सुधम्मो तं कूडालंबणेण हारिहा(हि)सि । भाविभवेसुं धम्मे संदेहो तं समीहेसि
॥२८॥ ता धिद्धी मइनाणे ता वज्जं पडउ पोरिसे तुज्झ । डज्झउ विवेगसारो गुणभंडारो महाभारो
॥२९॥ जं निअकज्जे वि तुमं गयलीलं कुणसि अलवसारोसि । अन्नन्नकज्जसज्जो सि पाव ! सुकुमारदेहो सि अन्नं च सुणसु रे जिअ ! कलिकालालंबणं न घित्तव्वं । जं कलिकाला नटुं कटुं न हु चेव जिणधम्मो
॥३१॥ समसत्तुमित्तचित्तो निच्चं अवगणिअमाणअवमाणो । मज्झत्थभावजुत्तो सिद्धंतपवित्तचित्तंतो सज्झायझाणनिरओ निच्चं सुसमाहिसंठिओ जीव ! । जइ चिट्ठसि ता इहयं पि निव्वुई किं च परलोए
॥३०॥
॥३२॥ .
॥३३॥
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॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
॥३८॥
इअ सुहिओ वि हु तं कुण जीव ! सुहकारणं वरचरितं । मा कलिकालालंबण-विमोहिओ चयसु सच्चरणं केवलकद्वेण धुवं न सिज्झए वरचरित्तपब्भट्ठो । कट्ठरहिउ(ओ)वि सुज्झाणसु(स)हिओ वि जाइ सिवं अज्ज वि जिणधम्माओ भवम्मि बीयम्मि सिज्जई जीवो । अविराहिअसामन्नो जहन्नओ अट्ठमभवम्मि ता जीव ! कट्ठसझं जइधम्मं तरसि नेव मा कुणसु । किं न कुणसि सुहसज्झं उवसमरससीलणं चरणं नहि कट्ठाओ सिद्धा विसिट्ठकाले वि किंतु सच्चरणा । ता तं करेसु सम्मं कमेण पाविहिसि सिवसम्म जं पुव्वं पि [हु] जीवा कमेण पत्ता सिवं चरित्ताओ। आइजिणेसरपमुहा ता तम्मि कमेण सिज्झिहिसि जो महरिसिअणुचिन्नो संपइ सो दुक्करो जइ पह(पहो) ता । अणुमोअसु गुणनिवहं तेसिं चिअ भत्तिगयचित्तो वसइ गिरिनिगुंजे भीसणे वा मसाणे वणविडवितले वा सुन्नगारे चरन्ते । हरि-करिपभिईणं भेरवाणं अभीओ सुरगिरिथिरचित्तो झाणसंताणलीणो जत्थेव सूरो समुवेइ अत्थं तत्थेव झाणं धरई पसत्थं । वोसट्टकाओ भय-संगमुक्को, रउद्द खुद्देहिं अखोहणिज्जो एसइ उज्झियधम्मं अंतं पंतं च सीअलं लुक्खं । अक्कोसिओ हओ वा अद्दीणविदाणमुहकमलो
॥३९।।
॥४०॥
॥४१॥
॥४२॥
॥४३॥
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॥४४॥
॥४५॥
॥४६॥
इअ सोसंतो देहं कम्मसमूहं च धिइबलसहाओ । जो मुणिवसभो एसो तस्स अहं निच्चदासु म्हि धन्ना ते सप्पुरिसा जे नवरिमु(म)णुत्तरं गया मुक्खं । जम्हा ते जीवाणं न कारणं कम्मबंधस्स अम्हे न तहा धन्ना धन्ना पुण इत्तिएण जं तेर्सि। बहु मन्नामो चरिअं सुहावहं धीरपुरिसाणं धन्ना हु बालमुणिणो कुमारभावम्मि जे उ पव्वइआ । निज्जिणिऊण अणंगं दुहावहं सयललोआणं एवं जिणागमाओ सम्मं संबोहिओ सि रे जीव ! । संबुज्झसु मा मुज्झसु उज्जमसु समीहियत्थम्मि जं उज्जमेण सिज्झइ कज्जं न मणोरहेहिं कइआवि । नहि सुत्तनरमुहे तरु-सिहराओ सयं फलं पडइ ता परिभाविअ एअं सव्वबलेणं च उज्जमं काउं। सामन्ने होसु थिरो जह पुहईचंदगुणविंदे
॥४७॥
॥४८॥
॥४९॥
॥५०॥
इति यतिशिक्षापंचासिका संपूर्णा ॥
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अज्ञातकर्तृक चतुर्विंशतिजिननमस्कार - काव्यो
- विजयशीलचन्द्रसूरि
मध्यकालना जैन मुनिओए काव्योना अने छंदोना केटकेटला प्रकारो पर सर्जन कर्यु छे ! जेम जेम हस्तप्रतिओ उकेलाती जाय छे, तेम तेम आ सर्जनो प्रकाशमां आवतां जाय छे. अहीं एक नानी परंतु जुदी ज भातनी संस्कृत रचना प्रस्तुत छ : चतुर्विंशतिजिननमस्कार.
"चोवीश तीर्थंकर" ए जैन परिभाषानो शब्दगुच्छ छे. जैन धर्म अनुसार, ऋषभदेवथी महावीर-वर्धमान स्वामी सुधीना चोवीश धर्मप्रवर्तक तीर्थंकरो थया छे; तेमनी स्तुतिनां आ काव्यो छे. २४ तीर्थंकरोनी स्तुति करतां संस्कृत काव्यो, स्तोत्रो तो असंख्य उपलब्ध छे : प्रकाशित तेमज अप्रकाशित. पण अहीं प्रकाशित थतुं स्तोत्र तेना छंदने कारणे ध्यानपात्र बने तेवू छे.
प्राकृत भाषाओमां ज मुख्यत्वे प्रयोजाता 'वस्तु' छंदमां (मात्रामेळ) संस्कृत पद्य भाग्ये ज रचाएलां जोवा मळे छे. जे मळे ते पण एकलदोकल ; एक सामट जथ्थामां नहीं ज. मारी जाण मुजब (भूलचुक लेवीदेवी) आ छंदमां, एकी साथे, २४ पद्यो, एक सळंग रचनारूपे मळ्यां ते विरल गणाय तेम छे.
आ स्तोत्रना कर्ता अने तेनो रचना-समय प्राप्त नथी थता, परंतु छंदनी प्रयोगरीति उपरथी ते १७मा शतकनी अने कोई विद्वान् जैन मुनिनी रचना होवानुं अनुमान थाय छे.
आ स्तोत्रनी मुख्य विशेषता, तेमां प्रयोजवामां आवेलो यमक अलंकार छे. शृंखलायमक चोवीशेय पद्योमा अखंड जोई शकाय. प्रथम पद्यनो छेल्लो शब्द ते ज पछीना पद्यनो प्रथम शब्द होय ते शृंखलायमक. अने वधुमां दरेक पद्यनी २३-४-५ पंक्तिओमां पण आ ज शृंखलायमक जळवायो छे : दरेक पंक्तिनो अंतिम शब्दांश ते पछीनी पंक्तिनो प्रथम अंश बने छे. आ अतिकठिन लागती योजना पण कवि एकदम अनायास-सहजतापूर्वक अने काव्यनी मधुरता तथा प्रासादिकतानी मावजत करवा साथे करी शक्या छे, ते अद्भुत लागे छे.
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आ रचना धरावतां फुटकळ पत्रोनी बे जुदी जुदी नकलो मने मुनिश्री धुरंधरविजयजी तरफथी प्राप्त थई हती. बन्नेनी लखावट जोतां १७मा शतकनी होवानुं अनुमान थयेटु. बन्ने पत्रोने साथे राखीने आ वाचना यथामति तैयार करी छे, अने जुदा पडता पाठोने नीचे टिप्पणी तरीके मूक्या छे.
चतुर्विंशतिजिननमस्काराः ॥ प्रथमजिनवर प्रथमजिनवर ! निखिलनरनाथसंसेवितपदकमल ! कमलबन्धुबन्धुर ! महोदय ! । दययोद्धृतभीमभवरूपकूपगतलोकसमुदय ! ॥ दयमानश्रियमसुमता-ममलचरित्रपवित्र ! वित्रस्ताखिलदुरितजय ! जय निष्कारणमित्र !
॥१॥ मित्रभासुर मित्रभासुर ! जय श्रीअजित ! विजया-जितशत्रुभव ! भुवनसूर ! दूरिततमोभर ! । भरताधिपनृपतिवरसगरपूज्य ! भवरजनिवासर! ।। सरभसभासितभुवनतल-केवलविमलालोक ! लोकशिवंकरसकलदिग्-वलयविलासिश्लोक !
॥२॥ श्लोकगद्य श्लोकगद्यप्रभृति-निरवद्यपदपद्धतिगेयगुण ! विगतवल्गदुपसर्गसङ्गम ! । गमदुर्गम ! विनयनयनिलय ! समयसरिदोघगिरिसम ! ॥ समसंयमसमतादिगुण-गणमणिरोहण ! परमरमणीयागम ! जय सदा श्रीसम्भवजिन ! वितम ! ॥३॥ तमभिनन्दन तमभिनन्दन-देवमन्दरामन्दारमालामिलितमौलिमौलिसुरराजसेवित ! । विततोज्ज्वलकीर्तिभरभरितभुवन ! मुनिभिः प्रशंसित ! ॥ सितकरसुन्दरतरलतरचालितचामरराजिराजित ! रंजय येन जिन ! तव पदकमलमभाजि
॥४॥
॥३॥
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॥५॥
॥६॥
भाजितोत्तम भाजितोत्तम कनक सुमतीश ! पाथोदपथपांथपथिपव्य(च्य)मानपरमद्धिवैभव ! । भवमार्गगतदीनभव्यजनतासुधाप्लव ! ॥ प्लवगचलाचलकरणजय ! योगीश्वर ! मुनिनाथ ! नाथवन्तमचिरेण मां कुरु कुरु रमासनाथ ! नाथनिर्मल नाथनिर्मल-पद्मसमचरण ! पद्मानन ! पद्मदलविपुलनयन ! वरपद्मलाञ्छित ! । छितपद्माभोगरस ! पद्मरागपन्नखमहोजित ! ॥ जित-पद्मासुत ! सुतनुरुचि-निचयनिराकृतपद्म ! । पद्मप्रभजिन ! समधिगत-शिवसम्पद्मयसद्म ! सन्मनोरथ सन्मनोरथ-करणसुररत्न ! रत्नोज्ज्वलफणमुकुट ! मुकुटरोचिरंजितदिगंतर ! । तरसाजितजगदजितमोहमल्लहेलाहतस्मर! ॥ स्मरणपरायणजनजनित-वांछिततत(ति) ! नरदेव ! देव ! सुपार्श्व सुपार्श्व ! जय भुवनत्रयकृतसेव ! सेवकोत्तम सेवकोत्तम-फलद ! निस्तन्द्रवरचन्द्रोज्ज्वलवर्ण ! वरचन्द्रसान्द्रनिःश्वाससौरभ ! । रभसाऽऽगतसकलशुभऋद्धिसिद्धिकुलभुवनसंनिभ ! ॥ निभवंध्य ! प्रतिसन्ध्यमपि जगदञ्चित जिनचन्द्र !
चन्द्रप्रभ ! जय ! सातिशय-गुणगणरत्नसमुद्र ! मुद्रसानत मुद्रसानत-निखिलनाकीन्द्र ! सुविधीश्वर! सुविधिपथपान्थधौतकल्मषरजोमल ! । मलयोद्भवसुरभितमविमलशीलजनजनितपरिमल ! । मलविमुक्तमुक्ताविशद-तनुकान्तिभिरभिराम ! रामा-सुग्रीवप्रभव ! जय कमलाकुलधाम !
॥७॥
॥८॥
॥८॥
॥९॥
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॥१०॥
॥११॥
धामधीरिम धामधीरिम रम्यभूपालविपुलोज्ज्वलकुलकुमुदकौमुदीश ! जगदीश ! शीतल! । तलपादस्पर्शवशसुपरिपूतभूतल ! महाबल ! ॥ बलासनशंसितविशद-गुणसंततिसंवीत ! वीतकषाय ! शमायतन ! तव विनमामि प्रीत ! प्रीतये भव प्रीतये भव भुवनविख्यातमहिमाऽहिम-हिमकिरण-हंसयान-हरि-हर-पुरन्दरदरदायकविषमसुमसायकस्य देव ! क्षयंकर! ॥ करतललुलितसरोजवर ! जगतीजनितश्रेय ! । श्रेयःस्वामिन(न्) ! भवदमन ! तनुरुचिजितगाङ्गेय ! गेयसद्गुण गेयसद्गुण ! मघवमणिमुकुटकोटीतटघृष्टपदनखक्रमभूषितवसुन्धर ! । धरणीधव-धर्व धीर जिनवासुपूज्य वसुपूज्यसुतवर ! ॥ वरदीभूतपवित्रवपु-रपहस्तितसिन्दूर ! दूरनिवारितदुरित ! जय तीर्णभवाम्बुधिपूर ! पूरयाश्रित पूरयाश्रित-जनमनोभीष्टमसमोदय ! चलनतललुलितसकलभुवनैकवैभव ! । भवभूधरभिदुरवर ! विमल ! भीमभावारिभैरव ! ॥ रवगम्भीरिममधुरिमा-ऽध:कृतजलदनिनाद ! । नादरतस्तव नमति कः स्फुटवाणीसंवाद ! वादनिर्जित वादनिर्जित देवनरवादिसम्पादितभक्तिभरविदितवस्तुविस्तार ज(जि)नवर ! । वरलावरवरगमन ! जनहितार्थकरणैकतत्पर ! ।। परमपदप्रदपदकमल ! विस्तृतकीर्तिपराग! । रागरोषजिदनन्त ! जय भुवि विश्रुतपरभाग !
॥१२॥
॥१३॥
॥१४॥
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॥१५॥
॥१६॥
भागधेय[युत] भागधेय[युत] ! प्रचुरसौभाग्यसम्भावितपदकमल ! वचनवीचिनीचैःकृतापरपरमाहितकुमतमत ! धर्मनाथ ! निर्वृतिवधूवर ! ॥ वरणीभूतभुजावलय-लीनजगत्त्रयकान्तिकान्तिधाम ! सुखमतनु मे वितनु विमुद्रितशान्ति शान्तिजिन! जय शान्तिजिन ! जय दोषभयभीतभुवनत्रयदुर्गसमसमवसरणवरवप्रभासित ! । सितचामर-भेरिरव-भा:समिद्ध-सिंहासनासितसितकर-धवलच्छत्र-वरनिःस्वन-विलसदशोकशोकहारिपुष्पप्रकरनन्दितविष्टपलोक ! लोकलोचन लोकलोचनचतुर! चतुरन्तवसुधाधव ! धवलतमपरमकीतिसंभारसंगत ! । गतकल्मष ! विषमतमदावदाहजलवाह ! शाश्वत ! ॥ स्वतनुसमुज्ज्वलकान्तिभर-भच्छि(त्सितसुरगिरिराज! । राजसहस्रनिषेव्य ! जय कुन्थुनाथजिनराज ! राजराजित राजराजित ! हारनीहारहरहासभासुर ! परमपदविलास ! भुवनैकबान्धव! । धवलोज्ज्वलकीर्तिभर ! भरतभूमिभूषण ! गताश्रव ! ॥ श्रवन्मुदश्रुनतश्रमण-सिक्तक्रम ! संकल्पकल्पद्रुम ! देवाऽर ! जय जैन चिन्तामणिकल्प ! कल्पनातिग कल्पनातिग ! कल्पितानल्पसंपद्जय मल्लिजिन ! मोहमल्ल ! मानैकभञ्जन ! । जनमिथ्याभावगदविलसदान्ध्यनाशनसुधाञ्जन ! ।। जननजरामृतिवल्लिवन-मोटनघनपवमान ! । मानवभवपावन ! मुनिप ! बोधितजनसन्तान !
॥१७॥
॥१८॥
॥१९॥
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24
२५
२६
॥२०॥
॥२१॥
तानवानत तानवानत-कर्मसम्बन्ध ! वरकेवलमहिमभररभसनृत्यदमरेन्द्ररमणी- । रमणीयकहारगलदमलरत्नरोचिष्णुधरणी- ॥ धरणीधर ! गुरुगरिमवर ! सुव्रत ! भव्यानसमसमवसृतिस्तव भगवता(त:) पायादपायादमम ! मम नमीश्वर! मम नमीश्वर ! वितनुकुशलानि कुशलावं लूनसमकर्मरूढ सुप्रौढकानन ! । जनतानामशिवकरमकरकेतुभयहेतुनाशन ! ।। सनरामरपशुपरमसम ! जनतोल्लसदुपदेश ! । देशदूरसीमाशमितसडमरमरकक्लेश ! क्लेशकारण क्लेशकारणनिखिलयदुराज्यराजीमतिसंपदाभोगभोगमाभोग्य जिनवर ! । नवरसवशमनधिगत ! तं विहाय विधिधृततपोभर ! ॥ भरतावनिपावनसुगिरिरैवतमौलिनिविष्ट ! । विष्टपवन्दित ! नेमिजिन ! जय सौभाग्यविशिष्ट ! शिष्टनन्दित शिष्टनन्दित ! कमठहठमुक्तजलवारणभुजगपतिधरणविहितविकटस्फु(स्फ)टाञ्चितचितरोचीरुचितरतरवपुरपास्तसतडिद्घनोर्जित ! ॥ जितमायामद ! पार्श्वजिन ! विघ्नगणानध्याय ! । ध्यायति यः तव नाम भुवि स भवति विगतापाय ! पायनायक पायनायक कायकलकान्तिसंतर्जितकनक मम पंकमंकनिश्शंकहरिवरवरणोन्मुखनिखिलसुखहेतुमुक्तिवनिताप्रियंकर! ॥ करपल्लवजितवरकमल ! विहतिविबोधितविश्व ! । विश्वजनीन ! जिनेन्द्रवर ! वर्धमान ! विजयस्व
॥२२॥
॥२३॥
॥२४॥
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25
२९
यः स्वभावज यः स्वभावज - भक्तिभावेन भवतो जिनराज ! नतिमभितनोति ननुकृतसमीहित ! हितशासन ! सनरेन्द्रसुरकिंनरेन्द्रखेचरेन्द्रसेवित ! ॥ वितमाः स भवति भवतिरस्कारविशारद ! धीर ! । धीरमणीयवचःप्रचय ! सकलजगत्त्रयवीर !
इति चतुर्विंशतिजिननमस्काराः समाप्ताः ॥
पाठान्तर :
१. सरससभा० ॥ २. शम० ॥ ३. शम्भव० 1 ४. ० वन्दारु ॥ ५. पांथपति० ॥ ६. भवमावमार्गगत० ॥ ७ मा ॥ ८. रत्नोज्ज्वलमुकुटफण-विकटरोचिरोचितदिगन्तर || ९. ० कुलवचनसंनिभ ॥ १०. चन्द्रप्रभजिन साति० ॥ ११. ० शासिन० ॥
१२.
२१.
० जननिश्रेय० ॥ १३. ०धव धर धीर० ।। १४. ० पवित्रतनु० ॥ १५. प्रवर० ।। १६.१७. ० राजत ॥ १८. हरभासुर ।। १९. ०पदपदविलास ॥ २०. ० क्लम ॥ जिन० ॥ २२. जन्म० ।। २३. ०घन ॥ २४. सुमुनि ॥ २५.२६. तानवागत ॥ जननो० ॥ २८. रसवससमधि० ।। २९. नतकृत० ॥ ३०. सुनरसुर० ॥
२७.
112411
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26
श्रीवासुपूज्यस्वामी - प्रतिष्ठाविधिसूचक स्तवन
__सं. साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
१९मा सैकाना प्रभावक तथा विद्वान् जैन आचार्य श्रीसौभाग्यलक्ष्मीसूरि महाराजनां शिष्य मुनि प्रेमविजयजी महाराजे रचेल श्रीवासुपूज्यस्वामिप्रतिष्ठाविधिसूचक स्तवन अत्रे रजू करतां आनंद थाय छे. संपादननी दिशामां अज्ञ तथा अणघड होवा छतां पूज्य आचार्यादि गुरुभगवंतोना मार्गदर्शनना टेके टेके आ एक प्रयास मारी अल्पमतिथी को छे. आमां क्षतिओ रही हशे ज तेनी मने खातरी छे. ते क्षम्य गणवानी तथा ते तरफ ध्यान दोरवानी विनंति करुं छु.
सूरतमां गोपीपुरा विस्तारमा आजे पण आ स्तवनमां वर्णित श्रीवासुपूज्यस्वामीनुं भव्य जिनालय मोजूद छे ; ते त्यां लालमणिदादाना देरासर तरीके पण
ओळखाय छे. ते देरासरना प्रणेता शाह रतनचंदना वंशपरंपरागत वारसदारो आजे पण विद्यमान छे. अने तेमणे आ देरासरनो जीर्णोद्धार करावी थोडांक वर्षो पूर्वे (सं.२०३२ मां) तेनी पुनः प्रतिष्ठा पण करावी छे. ढाल १ मां (कडी-११) उल्लिखित माणिभद्रदेवनी प्रभावक प्रतिमा पण त्यां छे, जेने कारणे ज लालमणिदादा - एq नाम प्रसिद्ध थयुं जणाय छे.
स्तवनमां प्राप्त थती ऐतिहासिक हकीकत ए छे के आ देरासर बनाबनार श्रावक स्तनचंद, शर्बुजयतीर्थनो पंद्ररमो जीर्णोद्धार करावनार समराशा ओसवालनी वंशपरंपरावं आवे छे तेवू आ स्तवनामा (ढाल १, कडी १) अणावायुं छे.
स्तवननो मुख्य विषय, वासुपूज्य देरासरनी प्रतिष्ठा-अंजनशलाकाना रतनचंद शेठे करेल दश दिवसना महोत्सव, विशद वर्णन छे. उत्सवमां कया दिवसे कई क्रिया थई, तेनुं चित्र स्तवनकारे रूडी रोते आलेखी बताव्युं छे. एमां जैन आगमो तथा शास्त्रोमां वर्णित, तीर्थंकरना जीवननी घटनाओनुं पण वर्णन कर्यु छ, अने साथे साथे उत्सवमां ते ते घटनाओ परत्वे केवी केवी क्रियाओ करी हती तेनं पण चित्र आप्युं छे. आमां देरासरनी प्रतिष्ठानी संवत / तिथि (ढाल-१०, कडी ६) पण मळी आवे छे, ते जोतां आ कृति धर्मपरक होवा छतां ऐतिहासिक पण गणाय तेवी छे.
'प्रतिष्ठाकारक आचार्यमहाराजनुं जुदुं नाम क्यांय देखातुं नथी, तेथी संभव
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सौभाग्यलक्ष्मीसूरि महाराजे ज प्रतिष्ठा करावी होय. तेनो साचो ख्याल तो ते प्रतिमा परना लेख वांची त्यारे ज आवी शके.
१३ ढाल अने १२४ कडीमां पथरायेलुं आ स्तवन पूज्य आचार्य श्रीशीलचंद्रसूरिजी म. पासेथी मने मळेल ३ पानांनी अने सं. १८५२ मां लखायेली प्रति उपरथी तेओनी दोरवणी अनुसार ऊतार्युं छे. ते प्रतिनां पानां एक तरफ थी पाणीमां के तेलमां खरडायेला होवाथी अमुक भाग उकेली शकाय नथी. ते ते स्थाने बया खाली राखी छे.
श्रीवासुपूज्य स्तवन (प्रतिष्ठा सूचक ) ॥
॥ श्री जिनाय नमः ॥ श्रीवासुपूज्यजिणंदनें प्रणमुं गुण अभियंम
जेहनें नामे संपजे
सफल मनोरथ धाम ॥१॥
त्रिभुवन वंदन पावनो
वसुपूज्यनंदन देव
वंदन भाव सहित करी
तवन करुं ततखेव ॥२॥
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पुन्य प्रभावक उपना ओसवाल वंश प्रसिधो रे
समरासारंग सेतुंजातणो
(आदिजिणंद मया करो - ए देशी | )
जिणें पनरमो उद्धार कीधो रे ॥१॥ धन धन श्री जिनसाशनें ॥
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नवलख बंदिवाननें छोडावि यस लिधो रे तसु वंशें सुरतबिंदरे वसतां कारिज सिधो रे ॥२॥ ध० । खेमराज मेघराजना झवेरसा व्यवहारी रे तस सुत पुण्य पवित्र जयो रतनचंद सुखकारी रे ॥३॥ ध० । एकदा गुरुमुखें सांभलि वासुपूज्य संबंध रे। रोहिणीचरीत्रने धारीने हर्ष थयो पूण्यबंध रे ॥४॥ ध० । वासुपूज्य महाराजनो निपजावू प्राशाद रे मोंहमांग्या धन खरचिनें भूमिका शुद्धि आह्लाद रे ॥५॥ ध० । रंगमंडप रलियांमणो कोरणि मेढि उदार रे गभारो तेजें झलहले गर्भावास निवारे रे ॥६।। ध० । धन खरच्यु मोटें मनें जिनमंदिर सुभ काज रे देवविमान समो देखी हरख्यां संघ समाज रे ॥७॥ ध० ।
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चंद्र परे उज्वल कांति पाषाण दल मंडाव्यां रे दूर देस थी आंणियां शिलावट मन भाव्यां रे ॥८॥ ध० । पंचसूत्तर सित्तेर भागनि पडिमा जिननी भरावि रे करण चरणनि सित्तरि पांमवा जेह जणावि रे ॥९॥ ध० । मांन प्रमाणे बिंब तें सवि जननें सुखदाइ रें संपूरण मूरति थई रतनसा हरख वधाइ रे ॥१०॥ ध० । कुमार यक्ष चंडा देवि वासुपूज्यपद-रागिरे टालें विघन मांणिभद्रजि दिई सांति पुष्टि सोभागि रे ॥११॥ ध० ।
(॥ भरत नृप भावस्यूं ए - ए देशी ।) हवे प्रतिष्ठा कारणे ए पुरव सन्मुख सार तो
वेदिका सुभ रचि ए। दोढ हाथ उन्नत भलि ए पुरीत वस्तु उदार तो वे० ॥१॥ पंच स्वस्तिक श्रीफल ठवो ए पंचरतन भूपीठ तो वे०।
अष्ट सुगंधे विलेपीयो ए करीइं धूप उकिट्ठ तो ॥२॥ वे० ।
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बार अंगुलमां ग्रंथी नहि ए उन्नत सरल उत्तम तो वे० । चउ विदिशि चउ वंसनें ए थापे मन उछरंग तो ॥३॥ वे० । वंसपात्रमा जवारका ए . चउ वंशे सात सात तो वे० । पुन्य अंकूर जाणे उगीया ए वितान तोरण पांति तो ॥४॥ वे० । समोसरणने प्रथम समें ए पीठ रचे सुरराज तो वे० । तिम इहां सुभ मुहुरत-दिने ए भूमी शुद्ध महाकाज तो ॥५॥ वे० । हवे जल लेवा कारणे ए थयो उजमाल पून्यवंत तो।
जलयात्रा भणि ए हयवर सिणगार्या घणा ए मयगल मदमलपंत तो ॥६॥ ज० । देवानंदा जिम विरने ए वृषभ रथ कर्या सझ तो ज० । पंचमा अंगमां वरणव्यां ए तिम इहां रथ घन गज्ज तो ॥७॥ ज० । भेरी भुंगल सरणाइओ ए ढोल निशांन वाजिंत्र तो ज० । संघ चतुर्विध बहू मल्या ए ध्वजा लहकंत पवित्र तो ॥८॥ ज० ।
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सोहव गीत मंगल भणे ए नरनारिना थोक तो ज० । प्रसन्न करि जलदेवता ए मंत्र सनाथ सलोक तो
ज० ।
सोल सिणगारे सोभती ए रुविवंति चउ नारि तो सजल कलस शिर पर ठवि ए आवे जिन दरबार तो प्रभुने जिमणि दिशि ठवे ए देइ प्रदक्षणा मान तो ज० । संघ सत्कार आडंबरे ए रतनसा हरख प्रमांण तो
॥ ९ ॥ ज० ।
॥१०॥ ज० ।
हवे मंगलकलशनि रचना
करि विधियोग नि यतना
ढाल [३] ॥
(देव नांहना छोकरां थावे वीरनें खंधोले चढावें - ए देशी || )
1
नवा बिंब प्रतिष्ठां हौवे
. तिहां कुंभथापन धुरी जोवे
अड चित्र
मध्ये कुंकुमसाथीओ मंत्र 11211
. जिमणि दिसें मनोहार
॥११॥ ज० ।
पंच रतननें द्रव्य अभंग
माहिं ठविइं मन उछरंग
मोटो सनाथमहोच्छव कीजे
तथा बिंबप्रवेस तिहां किजे ॥२॥
प्रभु
दीपक जयणा सुखकार ॥३॥
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कुंभचक्रे नक्षत्र आवे सवि पाप ताप संमावे कंठे फुल माल नालेर सुभ वस्त्र आछादित सार ॥४॥ शालि-स्वस्तिक उपर था सुंदरी गीत ग्यांन आलापे जिन साशनमां ए करणी निरविघन तणि ए नीसरणी ॥५॥ सवि अंकमां अक्षय अंक तेह मानें गणवो निस्संक सोहव पुत्रवंति नारी नवपदनो मंत्र संभारी ॥६॥ थिर सासें अखंड धारे जल पुरीजें सुभवारे लघुस्नात्र ते दिनथी सोहिइं शांति स्मरण त्रिसंझ जोइइं ॥७॥ एह किरीयामां हुसीयारी त्रिकरण योगें व्रतधारी उज्वल तास वछि गवरी (?). घृतदीप पूरे शुभ कुंमरी ॥८॥ सूर्यकांतिनो देवता योगें धर्मदीपक प्रगटें उद्योगे इम कुंभथापन दीपयुगति सौभाग्यलक्ष्मिसूरी शक्ति ॥९॥
इति कुंभथापना-भास।
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ढाल [४] ॥ (फतमल गइथी हुं पांणीडे तलाव ए देशी ॥) सुरिजन बीजे दीवसे सुजांण सोवन-पट्टे सोहतो सूरिजन सुगंधना सात लेप सोवन लेखनि दिपतो ॥१॥ सु० नंदावर्त लिखंत
कल्यांण वेलनो कंद ए सु० जन जननि गढ त्रिण (?)
राजित परमानंद ए ॥२॥ सु० खेत्रपाल आहवान
त्रिजे दिवसें किजीए सु० नवग्रह दश दिगपाल
आठ मंगल थापी पुंजीए ॥३॥ सु० सिद्धचक्रनि सेव
चोथे पांचमें दिहाडले सु० वीसथांनिकनि भक्ति
धरता रतनचंद हियडले ॥४॥ जगपति वासुपूज्यनो जीव पदमोत्तर भूप संयमी जगपति 'वीसथांनिक तप' कीधः भव त्रिजे गुण अभिरांमी ॥५॥ ज० बांधी तिर्थंकर गोत्र
प्रांणत स्वर्गे सुधामिया ज० विस सागरनुं आय
भोगवि जयाकुखे पांमीया ॥६॥
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ज० चंपानगर मझार
वसुपूज्य भूपति गुंणनिलो ज० जयारांणि गुणखांण
सर्व स्त्रीजातिमां सीरतीलो ॥७॥ ज० जेठ सुदि नवमी जांण
गर्भावासें अवतर्या ज० पोढि पल्यंग मझार
सुख निंद्राइं अलंकर्या ॥८॥ ज० चउद सुपन तिहां दीठ
तस फल शास्त्रमा दाखीओ ज० चवनकल्यांणक धारि
प्रांणथापन बिंबे भाखिओ ॥९।। ज० इंद्र आवी ततखेव
वंदि जननि कुशल पूछे ज० त्रिण ज्ञान भगवान
उगतो रवि सम रूप छे ॥१०॥ सु० छठे दिवसें ए काज
किजे किरिया अतिभलि सु० रतनसा हरख अपार धन खरचिजें मन रलि ॥११।।
॥ ढाल ॥ [५] ( आवो जमाई प्रांहूणा जयवंताजी ए देशी ।।) ऐरावण गजपति कहे सुणो मातजी करसें मुझ स्वामि सेव तव सुत जातजी मुझ परे क्षमाभार वहस्यें तुम नंदनजी इम कहीतो धोरी दीठ नयनानंद[न]जी ॥१॥
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रागद्वेष-गजगंजनो कहे सीहोजी दीठो जया रांणि तेह धर्मसमीहोजी माहरो चपल दोष वारस्ये पुत्र सेवाजी सीरीदेवी विनवें एम तत्व कहेवाजी ॥२॥ जांणिइं फूलमाला वदे देखे देविजी पसरसें मुझ परे वास किरती तहेविजी चंद्र कहे मुझ ओपमा सुत मुखनेजी चंद्रमुखी मन धारी पुरण सुखनेजी ॥३॥ मोहनीशाने चूरसें जायो नाथजी जणावतो सुरय दीठ सुत जगनाथजी - - - - सहस जोयणी जसु होसेजी इम जांणी ध्वज जलपंत जग दुख खोसेंजी ॥४॥ थांनक ए गुण रयणर्नु सहिजायोजी कहेवा आव्यो निधि कुंभ निसुणो मायोजी मुझ परे त्रिभुवन जीवनजी तखा हरसेंजी जांणीइं सरोवर पद्म वांणि वरस्येजी ॥५॥ सायर कहे एह मुझ थकी महागंभीरोजी कहेवा आव्यो छु मात पुण्यमंदीरोजी वैमानिक नमस्यें सुरा मांन मोडीजी वदतो एम विमान निरखे माडीजी ॥६॥ जगदाभरण शोभा वधस्य विश्वानंदीजी उचरंती रयणभार]थाल जोवे आनंदेजी तव सुत कर्म इंधण दहस्यें ध्यान अगर्नेजी इम कहे मानिइं मात चउदमें स्वप्नेजी ॥७॥
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चउद स्वप्न देखी जागीया जया राणीजी तेहनो अरथ सुणी साच मन हरखांणी जी चउद सुपन महोच्छव कियो रतनचंदेजी हरखें मनह मझार प्रभु पद वंदेजी ॥८॥
ढाल [६] ॥ ( मधुकर माधवने कहीजे रे - ए देशी ।) फागुण वदि चउदस रजनि रे सुत प्रशवे जयादेवि जननी रे हरखे सवि मेदनी सजनी रे जिनपति जगगुरुजी जाया रे दिशिकुंमरीइं हुलराया रे ॥१॥ अधोलोकवाशि दिशिकुमरी रे जिन जन्म अवधिनांणे समरी रे आवी आठ तसें अमरी रे जिन० ॥२॥ समीरे जोयण भूमि समारी रे ईशानें सूति घर विस्तारी रे उभी गुण गाइं ते सारी रे जि० ॥३॥ उर्द्धलोकथी आठ देवी रे आवी जल-फूलने वरसेवी रे भूमी योजनमित्त करेवि रे जि० ॥४॥ पूर्व रुचकथी आठ देवी रे आठ दर्पण हाथमां ल्यावी रे प्रणमि पूर्व दिशि ठावी रे जि० ॥५॥ दक्षिण रुचकथी दिगकन्या रे
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आठ कलश ग्रहि धनमन्या रे जिन माय नमि गीत भण्या रे जि० ॥६॥ आठ पश्चिम रुचकथी आवे रे वायु विजणे हाथ सोहावे रे ते दिशि रहि जीनगुण गावे रे जि० ॥७॥ चामर चतुरा अड धरती रे उत्तर रुचकथी अवतरति रे दोई नमि भवदूख हरती रे जि० ॥८॥ च्यार विदिशि थकी दिशिसुरी रे दीपक कर कांति पूरी रे प्रभुनु मुख जीवा सनुरी रे जि० ॥९॥ मध्य रुचकनी च्यार देवी रे नालच्छेदनि किरिया करेवि रे खांनि रतनपूरीत धरेवि रे जि० ॥१०॥ केलनां घर त्रिणें विरचि रे नवरावे पहेरावि अरचि रे जनम मंदिर थापे चरचि रे जि० ॥११॥ छपन दिशि कुंमरी जेहवो रे रतनसा करे ओछव तेहवो रे यश तसु बहुमांने केहवो रे जि० ॥१२॥
॥ ढाल ॥ [७] ( पुण्ये विमळा दोहला रे जया सफला होय - ए देशी ॥) अवधिनांणे जांणीओ रे सोहमपति जिन जन्म घंट सुधोषा वजडावीयो कांइ सेनानी सेनानीनो ए कांमतो
जन्माभिषेक करो प्रांणीया ए ॥१॥
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एकोन बत्रिस लाखना रे घंटनाद विशाल निसुणि परीकर परवर्या कांइ आवे ए आवे ए इंद्र अनुसार तो
ज० ॥२॥ पालक मुंकी नंदिस्वरे रे बीजुं रचिय विमान मंदिर जिन जननि भणि कांई त्रिण ए त्रिण ए प्रदक्षणा दान तो
ज० ॥३॥ इंद्र कहे जिन जनम महोछव करवो जे तुझ जात अवस्वापिनि प्रतिबिंब ठवी पंचरूपें ए पंचरूपें ए ग्रहे जगतात तो
ज० ॥४॥ मेरू पंडुकवन विषे रे लेई उछंगे स्वामि शक्र सिंहासन बेसीने कांई भक्तिथी भक्तिथी सेवन काम तो
ज० ॥५॥ इम निज निज थानक थकि रे आविया चोसठ इंद पेहेलो अभिषेक आदरे कांई मनमोदें ए मनमोदे अच्युत इंद तो
ज० ॥६॥ सेवक सुर आदेशथी रे लावे तीरथनां नीर चंदन फुल कलश घणां कांई मेले ए मेले ए जिनवर तीर तो
ज० ॥७॥ नाटक गीत मोटे स्वरे रे वाजिबना धौंकार थेई थेई सुरनारि करे रे कांई भूषण भूषण नो झलकार तो
ज० ॥८॥ वेसठ सुरपति स्नात्र महोछव किधो मन उल्लास ईशांन पंच रुपें करी काई अंके ए अंके धरे जिन खास तो
ज० ॥९॥
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सोहम वसह नें च्यार रूपें रे आठ स्प्रिंगे पयपुर
करे सनाथ जगनाथनुं कांइ निरमल निरमल जिनवर नुर तो
मंगल आठ आलेखियां रे आरति मंगल दीप
करे स्तवना वासुपूज्यनि कांई आणी ए आणिने भाव समीप तो
ज० ॥११॥
नमि स्तवि सोहमधणि रे मात पासे ठवंत हेम रयण वुठि करी कांई ठांमे ए ठांमे ए निज उलसंत तो
ज० ॥१०॥
महोछव चोसठ इंद्रनो रे रचिओ मनने उदार रतनसाइं निज धनतणो कांई लोहो ए लोहो ए लीधो अपार तो ज० ॥१३॥
सुगंध चूर्णादिकतणां रे आठमें वासर सार अढार सनाथ ते नवनवा रे कांइ किधां ए किधां ए मंत्र उचार तो ज० ॥१४॥
कां कांति वधे जिम चंद रे
भणवा योग वय जांणि रे निशाले ओछव आणि रे ॥२॥
ज० ॥१२॥
ढाल ||
[८] ( पीठी चोले पीठी चोले य ( वीसराणी ? ) ए देशी ॥ )
अतिसय सहेजना च्यार रे
लक्षण अंग अपार रे
आठ एक सहस विराजे रे अमीय अंगुठडे छाजे रे ॥१॥ त्रिभुवन आनंद कंद रे
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पाठिक दिलना संदेह रे टाले अवधिथी तेहरे त्रणस्युं ज्ञाने निरमला रे मुख मुख वाणि रशाला रे ॥३॥ यौवन प्रभुजीने देह रे धारे मातपीता म-मेह रे पद्मावति राजकन्या रे सम्मुख आवी लावण्या रे ॥४॥ सुभ वेला शुभ लगने रे जोवे विवाह सुर गगने रे इंद्र इंद्राणी ओहीनांणे रे करे (वीनती ?) तेह टांणे रे ॥५॥ मोक्ष रोधी भोगकर्म रे भेदेवा करग्रह मर्म रे कामिनी करवाल साही रे कांमे आण मनाइ रे ॥६॥ पहेलू मंगल होवे रे लाख तुरंगम देवे रे बीजु मंगल आवे रे गज बहुला प्रभुने आवे रे ॥७॥ त्रिजुं मंगल वरते रे कोडी भूसण दान देवे रे मणिमुगता फल - - - - चोथे मंगल - - - - ||८||
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विवाह ओछव कीधो रे मोटे मंडाणे जश लीधो रे निरागपणे वितराग रे भोगवता पुन्य भाग रे ॥९॥ पद्मावति सुत जायो रे मघवा नाम गवायो रे सुतनी सुता पुण्यवंति रे रोहिणी अशोक विलसंति रे ॥१०॥ जन्मथी वरस अढार लक्ष रे कर्म फल जांणि नांणे प्रत्यक्ष रे जया-वसुपूज्य समझावी रे संयम दिलमांहे लावि रे ॥११॥
ढाल ॥ [९] ( वीर वखांणि रांणि चेलणाजी - ए देशी ॥) पंचम स्वर्गथी आवीयाजी देव लोकांतिक जेह वीनती करे वासुपूज्यनें जी संयम लहो गुंण गेह ॥१॥
वसुपूज्यनंदन वंदिइंजी ॥ दांन संवच्छर देइनेंजी । खटसय नरवर साथ अमावासिं फागुणनीं भलीजी दीक्षा लीइं जगनाथ ॥२॥ व० ।
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सुरवर नरवर बहु मलिजी वाजिनो नही पार तृतिय कल्यांणिक इण परेजी रतनसा हर्ख उदार ॥३॥ व० । एह विधि नवमें दिवसें करयोजी
अधिवासना सुखकार रजनी समें सदगुरु तिहांजी मंत्र पवित्र विस्तार ॥४॥ व० । प्रणवमय तीर्थनायक प्रभुजी अतिशय रयण भंडार त्रिभूवन पावन सुरतरुजी करो एह मुरति अवतार |॥५॥ व० । वरस दिवस छदमस्थपणेजी विचरी लडं केवलनांण माहा सुदि बिज दीवसें भलोजी वरतता सुकलध्यांन ॥६।। व० । अतिशय शोभा पूरण थइजी सकल पदारथ जांण । गणधर संघनी थापनाजी बेठा त्रिगडे जीनभांण ॥७॥ व० ।
___ ढाल ॥ [१०] ( मोह्या मोह्या रे त्रिभुवन लोक गुरुनें बोलडीइं - ए देशी ॥) हिवें दशमें दीन अंजन सीलाका शुभ मुहुरत थीर योगे रें विधि सहीत करीइं उछरंगें द्रव्यभाव संयोगें अंजन शिलाका रे किजे किजे रे अति उल्लास प्रभु गुण धारी रे ॥१॥
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सोविरंजन माणिक्यवरणे कस्तुरी घृत सार रे घनसारादिक जोइई वस्तु मेलवीइं मनोहार ॥२॥ अं० ॥ सोहव पंचनारी गुंणवंति ए अंजननें समारे रे कंचन भाजनमें ते थापें पवित्र पणो मन धारे ॥३॥ अं० ॥ प्रतिष्ठा विधिनुं सार ए जांणि सुरीस्वर गुणधारी रे कंचन रुप्य सिलाका ग्रहीनें मंत्र स्वरोदय संभारी ॥४॥ अं० ॥ केवलज्ञान में केवलदर्शन प्रगट्यो परम उद्योत रे थापना सत्य कही ठाणंग सुत्रे जिन प्रतिमा जिन होत ॥५॥ अं० ।। वैशाख सुदि नंदा तिथीं बिजी शशी सींह लगनें आवे रे संवत अढार त्रेतालिस वरसें बेठ भग्वंत सोहावे ॥६॥ अं० ॥ लक्ष्मिसूरि ते समयें विनवें वासुपूज्य महाराया रे थिरभावे समोसरणे बेठा भगतवछल सुखदाया ॥७॥ अं० ॥ सर्वाभरणस्युं अंगि अनोपम रतनसा सर्व बनावे रे जनम सफल करवाने कारण समकित तत्व दीपावे ॥८॥ अं० ॥ एकसों आठ जें तिरथना जल सनाथ काव्य उचारे रे मंगल दीप नैवेद्य धरीने सिव कल्यांणिक धारे ॥९॥ अं० ॥
ढाल । [११] .
( आसणरा योगी ए देसी ।। ) श्रीवासुपूज्य प्रभुने वयणे थया व्रतधारी संघ रे जिनवर गुणगेहा मुनीवर बहुतेर सहस सोभंता साधवी लक्ष निसंगा रे प्रणमो जिनराया ॥१॥ दोय लक्ख पन्नर सहस उपासक चउलक्ख बत्रिस सहसा रे जयासुत जयवंता ।
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श्राविका शिलवंति गुणवंति
मनमां न पाप प्रवेशा रे संयम गुणवंता ॥२॥
चंपापुरीमां शिवपद पांम्या
छसे पुरुष परवरीया रे अविनासी आनंदा
आषाढ सुदि चउदिशि दिन लायक
सादि अनंत अनुंसरीया रे सुख परम आनंदा ॥३॥ चोपन लाख वरस संयमधरी
सुखभर भोगवि आयु रे वसुपूज्य सुत वंदो बहोत्तेर लाख वरसनुं निरूपम सहजानंद पद थाय रे चिदानंद महेंदो ॥४॥
पंचकल्यांणिकना बहु ओछव
करीनें पडिमा थपावे रे श्रावक पून्यवंता रतनसा नितनीत नवलि भक्ति
करता धर्म दीपावे रे शासन जयवंता ॥५॥
जिन प्रतिमा जिनसरखि धारी
समकित तत्त्व सुधारे रे अनुभवना रसिया
विजयसौभाग्यलक्ष्मीसूरि भावें
प्रभुर्गुण अनंत संभारे रे जिनमंदिर वसीया ॥ ६ ॥
ढाल । [१२]
( आवो आवो रे सयणां भगवति सुत्रने सुणीइं - ए देशी ॥ ) श्रीजी मंदिर तखते दिवाजे वासुपूज्य जयवंता प्रासाद बिंब प्रतिष्ठा ओछव रतनसा हरखें करंता ।
भवि तुमे वंदो रे वासुपूज्य जिनराया ॥१॥
मलकसा बांधव निज हेते ऋषभदेवनी प्रतिमा भूमिघरमा थपावे मोटो आनंद अधिको महिमा ॥२॥ भ० ॥
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देहरा उपर मनमोहनजी पास प्रभु पधरावे खरचे धन तस पूजा कांमे जिनशासन शोभावे ॥३॥ भ० ॥ त्रिभुवनना जिन समरण काजे त्रिहुं ठांमे जिन छाजे जसु नांमे दुख दोहन भाजे संपद धर्म विराजे ॥४॥ भ० ॥ धन झकुंबाइनें कुखे उदया रतनचंद कुलचंदा जेहने धननो लाहो लीधो पांमे महोदय वृंदा |५|| भ० ॥ संघ चतुर्विध साहमीवछल करतां मन नवि खोभे बहु पकवांन-मेवानि-वडाई दांन मांने घणुं सोभे ॥६।। भ० ॥ याचक जन बहु याचवा आव्या पंच पसाउ ते पांम्या मेघतणी परें वरसें दांने साधु भगति थिर धांमा ॥७॥ भ० ॥
ढाल ॥ [१३]
( राग-धन्याशि ।। ) श्रीवासुपूज्य प्रभुना गुण गावो मिथ्या दूरीत मिटावो रे मुगता फलना थाल भरीनें मुरति प्रभुनें वधावो रे ॥१॥ श्री० । सुख संपद गुंणग्यान विशाला सद्दहणा दिल लावो रे आनंद रंग रसाल महोदय पुण्य कारण प्रभु ध्यावो रे ॥२॥ श्री० । सुरतरु सुरमणि कामगवि शुभ कांमकुंभ जणावो रे पुण्यरतनागर जिन-प्रतिमानें त्रिभुवन वंदन आवो रे ॥३॥ श्री० ।
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पुत्र कलत्र हय गय रथमंदिर सुंदर धरमसुं दावो रे प्रभुपद भक्ति शक्तिथी लहीए नरभव पुण्य दीपावो रे ॥४॥ श्री० । श्रीविजयसौभाग्यसूरि तपागच्छे ते गुरुनो सुप्रभावो रे तस सीस प्रेमविजय स्तवना करी परमानंद सुख पावो रे ॥५॥ श्री० ।
कलश।
श्री वासुपूज्य जिनेंद्र साहिब थापीय जिन मंदिरें रतनचंदे मन आनंदे पुत्र कलत्र धन परीकरे थापना थापक तवन कारक रवि शशि लगे थीर रहो प्रेमविजय कहे प्रभुं पसायें सकलसंघ मंगल लहो ॥ १० ।।
इति श्रीवासूपूज्य जिन स्तवनं संपूर्णं ॥ सं-१८५२ ना फागुण वदि १३ तिथौ रविवासरे पं. खिमाविजयगणिलिखितं श्रीस्यांणामध्ये स्वअर्थे ।। विहारमध्ये ॥ इति श्रीप्रतिष्ठाविधिसूचकं स्तवनमे
म
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___ ढाल
कडी
अर्थ
शब्दकोश शब्द
शिलावट पंचसूत्तर सित्तेर भागनि
१
९
१
९
करण चरणनि सित्तरि
सलाट शिल्पशास्त्रना नियम प्रमाणे जिन प्रतिमाना मापनी विगत. जैन मुनिना आचारमा आवता करणसित्तरी तथा चरणसित्तरी शब्दो : आचार पालनना नियमविशेष. उत्कृष्ट गांठ-गांठो चार वांसने जवारिया तीर्थंकरनी धर्मसभानुं स्थान जैनागमोमांना ११ अंगसूत्रो पैकी पांचमा अंगसूत्र-भगवती
उकिठ ग्रंथी चउ बंसनें जवारका समोसरण पंचम अंगमां
सूत्रमा
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सोहव
सनाथ वीसथानिक तप तीर्थंकर गोत्र
सधवा : सौभाग्यवती स्त्री स्नात्र ए नामनी एक विशिष्ट तपस्या तीर्थंकर थवा माटे उपार्जन करवा पडतां कर्मनुं नाम. १२ देवलोक पैकी १०मा देवलोकनुं नाम. २० सागरोपम : सागरोपम ते जैन कालगणनामां एक कालविशेष छे.
प्राणत स्वर्ग
वीस सागर
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च्यवन कल्याणक
दिशिकुमरी
अवधिनाण
सूतिघर
योजनमित्त पूर्वरुचक
दक्षिणरुचक नालच्छेदनि किरिया
तीर्थंकरना आत्मानुं स्वर्गमांथी अवतरण. 'दिक्कुमारी' - ए नामे प्रसिद्ध देवीओ छे. पांच ज्ञान पैकी त्रीजा ज्ञाननाम. प्रसूति पछीनी क्रिया करवा माटे बनावेलुं घर. १ योजन जेटली पूर्वदिशानो रुचक नामनो पर्वत. दक्षिण रुचक पर्वत नवजात शिशुनी डूंटी परनी नाल छेदवानी क्रिया. खाडो करी (तेमां नाळ पधरावी) तेने रत्नोथी पूरी देवानी क्रिया. ते नामनो देव तथा ते नामनुं देव विमान ते नामनो आठमो द्वीप ते नामनी विद्या, जेना प्रभावे बधां उंघी ज जाय. बाल तीर्थंकरनी प्रतिकृति. मेरु पर्वत परना वननुं नाम. सौधर्मइंद्र. वृषभ-बळद तीर्थंकरने जन्मतां ज प्राप्त थती ४ अलौकिक विशिष्टताओ.
खांनि रतनपूरीत
पालक
नंदिस्वर अवस्वापिनि
प्रतिबिंब पंडुकवन सोहम
वसह अतिसय सहजना
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पाठिक लोकांतिक दान संवच्छर
तृतीय कल्यांणिक
अधिवासना
morrow: 9:
छदमस्थपणे
पाठक-अध्यापक ते नामना देव विशेष तीर्थंकर द्वारा देवातुं वार्षिकदान त्रीजुं-दीक्षा कल्याणकः दीक्षा. जिन प्रतिमानी प्राण प्रतिष्ठा पूर्वे थती विशिष्ट क्रिया. केवलज्ञान प्राप्त कर्या पूर्वेनी मुनि-दशा. शुक्लध्यान नामे ध्यानविशेष प्रथम शिष्य त्रण गढवाला समवसरणमां मूर्तिने अंजन आपवानी क्रिया अंजनचूर्ण माटेनुं एक द्रव्य प्रतिमा १२ अंगसूत्रो पैकी त्रीजुं अंग
सुकलध्यांन गणधर त्रिगडे अंजनसीलाका सोविरंजण
थापना ठाणंग सूत्र
3:
अंगि सिवकल्यांणिक साहमीवछल
आंगी: अंगशणगार मोक्ष साधर्मिकवात्सल्य: संघy जमण 'पांच पसाव' इनामनो प्रकार मिथ्यात्वरूपी दुरित-पाप दृढ श्रद्धा
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पंच पसाउ मिथ्यादूरीत सद्दहणा .
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प्राकृत मुक्तक कविताना एक अमूल्य ग्रंथनी उपलब्धि
तारागण महावादीन्द्र बप्पभट्टिसूरिकृत प्राकृत सुभाषित-संग्रह (शंकुक-संकलित)
हरिवल्लभ भायाणी कवि बप्पभट्टि
जैन परंपरामां १३मी शताब्दीथी बप्पभट्टिसूरिनुं जीवनचरित्र मळे छे. जन्म गंगा-यमुना दोआबना एक गाममां. शिक्षण अने संस्कारग्रहण गुजरातना मोढेरामां. कार्यक्षेत्र मुख्यत्वे कनोज अने ग्वालियर. मैत्री अने आश्रय गुर्जरप्रतीहार राजवी आम अपरनाम नागावलोक (एटले के नागभट्ट बीजा)नी साथे. एनो समय इ.स.७४४थी ८३९नो उत्तम कवि तरीकेनी शताब्दीओ सुधी ख्याति. सुभाषितसंग्रह 'तारागण'
प्राकृत सुभाषितोना कोश तरीके 'तारागण'नी परंपरागत ख्याति होवा छतां तेनी कोई हस्तप्रत जाणवामां आवी न हती, के तेना स्वरूप, विषय अने विस्तार विशे पण आपणे तद्दन अंधारामां हता. पण १९७० लगभग बीकानेरना एक हस्तप्रतभंडारमां तेनी एक हस्तप्रत सद्गत अगरचंद नाहटाना ध्यानमां आवी. सद्गत प्रकांड विद्वान आदिनाथ उपाध्येए 'तारागण'ना संपादनकार्यनो आरंभ करेलो. छेवटे ए अधूरुं रहेतां में पूरुं कर्यु छे.
'तारागण' मां शंकुक नामना कविए बप्पभट्टिसूरिना आशरे ११६ सुभाषित संगृहीत कर्यां छे. अनुराग (संयोग, विरह, स्त्रीरूपवर्णन), अन्योक्ति, सज्जनदुर्जन, राज-चाटु जेवा परिचित विषयोने लगता सुभाषित प्राकृत मुक्तक कवितानी उच्च परंपरा जाळवे छे. एक तरफ हाल-सातवाहननी 'गाथा-सप्तशती' अने बीजी तरफ जयवल्लभकृत 'वज्जलग्ग' ए बेनी वच्चे 'तारागण'नो प्राकृत मुक्तकसंग्रह आवे छे. प्राकृत कविताना रसिक आस्वादको माटे 'तारागण' नूतन वानगीओनो रसथाळ नीवडे तेम छे.
_ 'प्रभावकचरित' (इ.स. १२७८)ना 'बप्पभट्टिसूरिचरित'मां पूर्व परंपरानी सामग्रीनो उपयोग करीने आचार्य प्रभाचंद्रे बप्पभट्टिसूरिनुं जे विस्तृत
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चरित्र आप्यु छे ते अनेक दृष्टिए महत्त्वनुं छे. तेमां बप्पभट्टिनी विद्वत्ता, बुद्धिचातुर्य, कवित्वशक्ति, प्रतिहार राजा आम नागावलोक साथे तेनी मैत्री अने राजा उपर तेनो प्रभाव, मानीनता वगेरे विविध चारित्रगुणो रोचक प्रसंगो द्वारा प्रगट थया छे. कल्पना, दंतकथा अने इतिहास, आवा चरित्रोमां मिश्रण तो होय ज, पण खास तो प्रभाचंद्रनी रचनाशक्ति अने चरित्रचित्रणनी शक्ति आपणी प्रशंसा मागी ले तेवी छे.
बप्पभट्टिनी कवित्वशक्तिना द्योतक होय तेवा अनेक प्रसंगो आपेला छे अने तेमना संदर्भमां बप्पभट्टिरचित अनेक संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंश पद्यो आपेला छे. ओगणचालीश जेटलां प्राकृत-अपभ्रंश पद्योमांथी केटलांक पद्यपूर्तिना परिणाम होईने आम राजा अने बप्पभट्टिनी संयुक्त रचना गणी शकाय.
प्रश्न ए छे के बप्पभट्टिने नामे अपायेलां आ पद्योने खरेखर तेमनी रचना गणवा माटे कोई बीजो तटस्थ अने श्रद्धेय पुरावो खरो? बप्पभट्टिए 'तारागण', 'सरस्वतीदेवी स्तुति', 'शांतिदेवता स्तवन' वगेरे सहित बावन प्रबंधो रच्या होवानो चरितमां निर्देश छे. पण अत्यारे आपणने 'तारागण' अने 'सरस्वतीस्तुति' जेवी बेत्रण रचना ज मळे छे. एटले ज टांकेलां प्राकृत-अपभ्रंश पद्योना कर्तृत्वनो प्रश्न उपस्थित थाय छे.
टांकेलां पद्योमांथी एक अपभ्रंश पद्य अने एक प्राकृत पद्य हेमचंद्रे 'सिद्धहेम' व्याकरणमां टांकेला अपभ्रंश उदाहरण-पद्योमा मळे छे. 'प्रभावकचरित', पृ. ८८ उपर- पद्य २१६ नीचे प्रमाणे छे.
पई मुक्काह वि वरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताहं ।
तह पुण छाया जइ होइ तारिसी तेहिं पत्तेहिं ॥ आ ज पद्य थोडांक पाठांतरो साथे 'सिद्धहेम' ८, ४, ३७० नीचे उदाहरण माटे टांकेलुं छे. तेनो पाठ नीचे प्रमाणे छे.
पई मुक्काहं वि वरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणु छाया जइ होज्ज कह वि ता तेहिं पत्तेहिं ।।
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_ 'प्रभावकचरित' प्रमाणे आम राजाए अणबनावने कारणे चाल्या गयेला बप्पभट्टिने जे अन्योक्ति संदेशामां पाठवी हती, तेना उत्तर रूपे मोकलेली गाथाओमां एक उपर्युक्त गाथा हती. आम राजानी अन्योक्ति अपभ्रंश दोहा रूपे छे. ते नीचे प्रमाणे छे.
छायह कारणि सिरि धरिअ , पच्चिवि भूमि पडंति ।
पत्तहं इहु पत्तत्तणु (? णउं) , वरतरु काई करंति ।। अर्थ : तरुवरोए छाया अर्थे शिर पर धरेलां पत्रो पाकीने भूमि पर खरी पडे छे. पत्रो, आज पत्रत्व छे (तेमनो जातिस्वभाव छे); तेमां तरुवरो शं करे?
आना उत्तरमां बप्पभट्टि, कहेवरावे छे के 'हे तरुवर, ताराथी तजायेला पत्रोनं पत्रत्व कांई नाश पामतं नथी. ज्यारे तारी एवी कोई छाया होय तो ते तारां पत्रोथी ज.'
__ आ रीते उपर्युक्त गाथा बप्पभट्टिना एक महत्त्वना जीवनप्रसंग साथे वणायेली होवाथी प्रस्तुत लागे छे. पण बीजे पक्षे 'प्रभावकचरित'मां बप्पभट्टिए रचेली सात गाथाओना जे प्रतीक आपेला छे, तेमां आ 'पत्र' वाळी गाथानो निर्देश के प्रतीक नथी. 'तारागण'नी बेत्रण गाथाओनो अनुवाद
'जुओ, आ वर्षाकाळरूपी मालधारी आकाश-खेतरमां काळां वादळांनी भेंशोना धणने पवन-परोणे गोदावतो हांकी रह्यो छे.' (२६मी गाथा)
'जेटलो एने मारा पर प्रेम छे तेटलो प्रेम मारी पासेथी एने मळतो नथीएवं अमस्थु ज पोताना मनथी मानी बेठेलां ए बंने जण नकामां दूबळां पडी रह्यां छे. (७३मी गाथा)
ए पतिपत्नीनां मन दरेक बाबतमां संवादी होवा छतां, एक बाबतमां तेमनी वच्चे विसंवाद छे : ए तेने, स्वामिनी माने छे, तो ते पोताने किंकरी.' (७२मी गाथा).
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१.
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केटलाक अल्पज्ञात के अज्ञात मूळना गुजराती शब्दप्रयोगोनी चर्चा
खमण, खामणुं, छीणवुं
खमण 'छीणीने करेलो छूदो' ('कोपरानुं खमण ' )
खमणवुं खमणी ('खमणवानुं ओजार')
सं. क्षि. 'क्षय थवो', 'क्षीण थवुं'; क्षपय् 'क्षय करवो', 'क्षीण
करवुं'.
हरिवल्लभ भायाणी
प्रा. खवय् ;
क्रियावाचक नाम सं. क्षपण, प्रा. खवण > खमण.
खामणुं 'खाबडुं', 'छीछरो क्यारो', 'वासण मूकवा सारुं करेली बेसणी'
खमण उपरथी खामण 'कोतरी, खोदी खाडो करवो; एवो खाडो' एवं मूळ होय.
सं. क्षीण, प्रा. छीण, गुज. छीणवुं, छीणी, छीण.
सं. क्षनो ख् करवानुं गुजरातीनुं सामान्य वलण छे. पण क्ष नो छ थयानां उदाहरण पण मळे छे, तो ते शब्दो एवा वलणवाळी बोलीमांथी (जेम के हिंदी, मराठी) आव्या होय. प्राकृतोमांनी परिस्थिति परत्वे जुओ पिशेलनुं प्राकृत व्याकरण परिच्छेद ३१७-३२३.
घायां - पडघायां
घायां पडघायां (सं. घात-प्रतिघात, प्रा. घाय- पडिघाय ). ( 'घायल थवाथी, डूबी जवाथी वगेरे कमोते मरेलां'; भादरवा वदी चौदशे एमनुं श्राद्ध कराय छे. बाळांभोळां ए एवी ज रीते नानां बाळक मरी गयां होय एमना श्राद्धनो रूढिथी मनातो दिवस छे.) पडघो, पडछंदो, पडजीभ, पडभींत, पडपूछ, पडिकमणुं वगेरेमां
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सं. प्रति, प्रा. पडि परथी आवेलो पड के पडि मळे छे. प्राकृत माटे जुओ पिशेल, परिच्छेद २१९.
जड १. जड 'अचेतन', 'लागणी, बुद्धि के स्फुति विनानुं' (सं. प्रा. जड)
जड परथी भारवाचक जड्ड (अपभ्रंशमां) ते परथी जाडु (अर्थ
परिवर्तन; जेम हिंदी मोटा = 'जाडु') २. जड 'मूळियुं'. जडमूळ (पर्यावाचक समास). सं. जटा, प्रा. जडा,
जड (टर्नर, ५०८६). "जड उखेडी नाखवी', 'जडथड', 'जडियुं', 'जडथु' ('मूळाडियु'). जडीबुट्टी एमां जडी 'औषधिना
गुणवाळु मूळियु'-'चमत्कारिक गुणवाळु मूळियु'. टर्नर. ३. जड 'खीली', 'स्त्रीओनुं नाक- घरेणुं'. कदाच क्रमांक २ वाळा जड
परथी आ अर्थविकास थयो होय. सज्जडनो संबंध आनी साथे
होवानुं जणाय छे. ४. जड : जडवू 'सज्जड बेसाडवू', 'बेसणीमां नंग जोडवू', (टर्नर,
५०९१). ___५. जडवं 'शोधतां हाथ लागq'. जडतुं 'बंध बेसतुं , मळतुं'. जडती
लेवी मांनो जडती आनी साथे संकळायेलो हशे? ६. जड वासवी 'हिंदुओना बाळकोने जनोई होवाना प्रसंगे के
परणनाराओने, माथाना वाळमां फोइए वींटी बांधवी'. जडवासणुं आमां जड अने वासवू नुं मूळ शुं छे ते स्पष्ट नथी. अज्जडनु मूळ स्पष्ट नथी. बृगुको. मां देश्य 'उपपति, जार'नो अर्थ धरावता शब्दनी साथे तेने जोड्यो छे पण ए अटकळ निराधार छे.
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जूठं, एटुंटुं
जूटुं 'खोटुं, असत्य'. जूठ, जूठाडुं, जुठाणुं ('जुठाणुं जलदी पकडाय, आखर जूठो जन पस्ताय'). भार देवा, उत्कटता दर्शाववा जुडुं वगेरे.
जूटुं 'छांडेलुं अनाज', 'एंठु, अजीतुं, उच्छिष्ट'. जमवुं जूठवुं. टर्नर (क्रमांक ५२५५, ५२५६, ५२५७) प्रमाणे मूळ सं. जुष्ट, प्रा. जुट्ट 'वापरेलुं', 'वापरीने भ्रष्ट करेलुं', 'जेनो आस्वाद लीधो छे तेवुं'. गुज. जूठण 'छांडेलुं अनाज'. जूठण 'खेलमां एलेफल, जूटुं पण बोलनार ; रंगलो' ( भवाईमां जूठणनो वेश).
एटुं ( के एंटुं )जूठु. आमां कोशो एठुना तथा अजीठुना मूळ तरीके सं. उच्छिष्ट, जूनी गुज. उछीटुं आपे छे, परंतु एम करवामां ध्वनिदृष्टिए घणी मुश्केली छे. जेनी पाछळ संयुक्त व्यंजन छे तेवा उनो अ अने छ्नो ज् बन्यो तेनो खुलासो केम आपवो ?
झाड, झाडवं झूडवुं
झाड 'वृक्ष, छोड'; सं. झाट 'झाडी, झाड'. प्रा. जाडि 'वेलोनुं झुंड' (टर्नर, क्रमांक ५३६२). गुज. झाडी, झाडवुं, झाडखुं (व, ख स्वार्थिक प्रत्ययः जेम के व- लाडवो, कडवुं, ख- डाळखुं, माळखुं). जाट एटले 'जटाओनो, मूळनो जथ्थो' 'थुडियं'. सं. जटा, अप. जड, गुज. जड 'मूळियुं'.
झाडवुं 'वाळवं', 'झापटवुं'. झाडवुं - झूडवुं (जेम झाटकवुं - झूटकवुं, झापट - झूपट) 'झाडीझूडीने घर साफ करवुं.' 'झाडु' (टर्नर, क्रमांक ५३२८). झूडवुं (ला.) 'सखत मार मारवो'. झाडो 'दस्त' क्रमांक २ ना झाडवु साथै संकळायेलो छे के केम
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नथी कही शकातुं. झाडे फरवा जq मां झाडे क्रमांक १ वाळो
झाड कदाच होय. सरखावो, दिशाए जq. झडि प्रा. 'निरंतर वृष्टि', 'वरसाद- तोफान', गुज. झडी. एनुं मूळ
जुदुं ज छे. (टर्नर, क्रमांक ५३२९). .
पडछो पडछो 'शेरडीने छेडेनो पांदडानो भाग'. सं. छद 'पांदडुं'. एटले
प्रतिच्छद (शेरडीना) मूळनी सामेनां, सामे छेटेनां पांदडां'. सं. प्रतिच्छद, प्रा. पडिच्छअ, गुज. पडछो. पडछो 'सहारो, आधार', पडछो न लेवो ‘पासे न जq' (लाक्षणिक), पडछे नाखवू के मूकवू 'सरखामणी करवी' - एथी हुं अजाण छु.
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Sporadic Notes on Some Terms from the Nṛttaratnavali
H. C. Bhayani
Numerous technical terms connected with drama, dance and music are quite obviously not Sanskritic. The source of their form and meaning was Prakrit, Apabharaṁśa or regional languages. But little has been written so far on the linguistic aspect of those terms.
Below a few such terms are discussed from the Nṛttaratnavali (NR.)
3154127
In the description of Angika Abhinaya, occurs the term 327 (NR. p. 45, v. 177; p. 66, v. 341) 'turning the body aside and or stretching limbs' (in yawninig, laziness etc.) Pk. etc. (CDIAL. 10186 under motati). s occurs yawning and
,
in Apabhraṁśa. Compare Marathi з
stretching the limbs'. See R. Shriyam 'A Critical Study of Mahāpurāṇa of Puspadanta', 1962. p. 73. no. 104)
chitec
Among the musical instruments कांस्यताल or कांस्य is mentioned several times. (See NR. Index of Important Words). In verse 28 on p. 206 in the शङ्ख-कांस्यादि- संभृता मृदङ्ग - करटोद्भवाः the actual MS. reading is on which Raghavan has remarked in the footnote:
is obscure.... the correct reading restored above.
is likely to be
But can be explained as Sanskritization of Pk.
cymbal, (made of bell-metal)'.
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छोटिका In the description of the Deśí Nịtta Rāsaka is said that the dancuses dance giving rythmic clap in another's palm and giving छोटिकाs. Possibly छोटिका is the same as Hindi चुटकी 'clapping one's fingers'.
तम्बट्ट This musical instrument, mentioned in v. 147 on p.227 is a Copper drum, possibly the same as or allied to Pk. Tide , Guj. jalo
पैसार In the description of the Desi Nịttas Peraņi (Preraņi) and Deśi, one of the dance movements is called THT (NR., p. 211, v.60 ; p. 214, v.72). The form should be 45HR. It is an Apabhramba word meaning "entrance'. (See Paumacariu I, Index). It is a noun derived from पड्सार् (= प्रवेशय् ), causal of 454< Sk. al. In NR., V. 60 and v. 72 the dancer is said to enter (प्रविश्) in performing the पैसार . The verb पेसार and the corresponding noun TTJ are current in Modern Gujarati.
रिगवणी, रिघोणी In the description of Peraņi and Deśi, one of the dance movement is called fuauit (v. 59, 70) or faut (v. 71, 76).
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Pk. रिग्ग्, रिग्घ्, रिंग्, रिक्ख्, रिंख् mean ‘to crawl’. (See CDIAL. 10733, 10735, 10739). * रिग्गूव् and रिग्घव् would be causal bases, verbal nouns would *, *fq" (neuter) * रिग्गवणी, * रिग्घवणी (feminine). These would develop as रिगवणी / रिगोणी, रिघवणी / रिघोणी in the NIA - stage. ( Compare Marathi frau 'to crawl'). In Prakrit there are instances in which a causal base is used in the same sense as the simple base, e.g. fad, चिंतव् ‘to think’. In the light of this रिगवणी, रिघोणी can be taken to mean 'crawling movement'.* It should be noted that feminine verbal nouns in 3 are a characteristic of the NIA-stage.
Reference Works
(1)
(2)
(3)
*
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H. C. Bhayani (ed.). Paumacariu of Svayambhu.
V. Raghavan (ed.). Nṛttaratnavali of Jāya Senapati, 1965. R. L. Turner. Comparative Dictionary of the Indo-Aryan Languages (CIDAL).
The Desi Nṛtta described after the Desi is called . But the correct form is पेक्खण ( Pk ) < Sk. प्रेक्षण.
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