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________________ १८१ ॥७८॥ १८२ ॥८ ॥ १८४ ॥८२॥ ॥८३।। चंदेण होइ लाहो हाणी मरणं च होइ सूरेण । अक्क-मयंकेसु तहा गमणागमणं वियाणेह [दूराहाणे च दो कुणइ धुवं सयलसुहससि(मि)द्धीओ। आसन्ने आसन्नो सूरे सूरत्तणं कुणइ ।। जइ दाहिणम्मि रुद्दो सूरपवाहेसु संठिओ हवइ । -- -- - -------- तो वं]चेविणु रुद्धो जिप्पइ सयरायरं भुयणं सूरग्गमणे बाला-घडियचउक्कम्मि सम्मुहो जिणइ । तह उद्धेण य वामा पुट्ठिट्ठि(ठि)या जिणइ रयणीए सूरपवाहे सूरो जाणइ कुज्जाई सत्तिसाहीणे । जयइ धुयं संकमणे गय[घड]भडलक्खसंघायं अमियपवाहे बाला अहवा पुरयम्मि संठिया वहइ । ठाणट्ठिओ वि समरे जयइ धुयं नत्थि संदेहो इयरबलं निज्जीवे नियबल नाऊण ठवह सज्जीवे । जीवो जिणेइ धुयं सरोअए इत्तियं सारं हरिवसहेण च सूरो धयगयठाणेसु ससहरो बलिओ। तुरिएण जिणइ सूरो निसिनाहो जिणइ सेसेसु [रविदाहिणम्मि सूरो ससहरठाणेसु संठिया सत्ती । अत्यंते उणचंदो जिणइ नरो जो गउओयरे । चंदपवाहे सत्ती सुन्नहरे अहव पच्छिमे सूरो। सुन्नगए गहनाहे थक्को ठायम्मि अखिलं जिणइ ॥] को जयइ गहियनामं रवि-ससिखित्तम्मि संठिओ दूओ। जीवहरे पढमयरो सुन्नहरे पच्छिमो जयइ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ||८७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520513
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages66
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size3 MB
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