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________________ 13 श्री पृथ्वीचन्द्रसूरिकृत यतिशिक्षापञ्चाशिका ॥ जैन मुनिओना आचारपालननी प्रक्रिया ए एक, अन्यत्र क्यांय, कोई पण धर्म-संप्रदायमा जोवा न मळे तेवी विरल अने असामान्य बाबत छे. आत्माना उत्कर्षने ज मात्र केन्द्रमां राखीने योजायेली आ प्रक्रियामां, मानवसहज दुर्बलताने कारणे, कोई आत्मा, ढीलो के शिथिल पडी जाय, तो तेने ढंढोळवा माटे अने पुनः प्रक्रियामां स्थिर करवा माटे श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरिजी महाराजे आ लघु कृतिनुं निर्माण कर्तुं छे. फक्त पचास गाथा - प्रमाण आ कृतिमां साधुने अने तेनी चारित्र भावनाने जागृत करवा माटे जे हृदयस्पर्शी टकोरो कर्ताए करी छे, ते अत्यंत प्रेरणादायक अने जागृतिप्रेरक छे. कर्ता श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरि कया समयमां तथा कया गच्छमां थया, ते जाणी शकातुं नथी. साधुजनोने शिक्षा आपतां आपतां तेमणे क्यांक क्यांक कहेवतोनो पण समुचित उपयोग कर्यो छे. दा.त. गाथा १२ मां " पिक्खसि नगे बलंतं, न पिक्खसे पायहिओ मूढ !" वांचतां ज, "डुंगर जळती ला'य, देखे ते सारी जगत पगतळ जळती ला'य, रति न सूझे राजिया !" - विजयशीलचन्द्रसूरि आ लोकोक्तिनी याद आवी जाय छे. तो गाथा ४९मां " नहि सुत्तनर- मुहे तरु - सिहराओ सयं फलं पडइ" ए पंक्ति, "उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥" ए सुभाषितनी स्मृति करावी आपे छे. कलिकाल ए पडतो काळ होई आवुं ज चाले ; क्षम्य गणाय; आम विचारनारा के बचाव करनारानी तो तेमणे भारे झाटकणी काढी छे (गा. ३१). Jain Education International आ नानकडी कृति प्राकृत भाषाना अभ्यासीओ माटे जेम उपयोगी थशे, तेम साधुजनो माटे पण उपकारक बनशे ज, तेवी श्रद्धा छे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520513
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages66
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size3 MB
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