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यतिशिक्षापञ्चाशिका ॥ जयइ जिणसासणमिणं अप्पडिहयथिरपयावदिप्पंतं । दूसमकाले वि सया सहावसिद्धं तिहुअणे वि पढमं नमंसिअव्वो जिणागमो जस्सं इह पभावाओ। सुहमाण बायराणं भावाणं नज्जइ सरूवं जह जीवो भमइ भवं किलिट्ठगुरुकम्मबंधणेहितो। तन्निज्जरावि[य]जहा, जाइ सिवं संवरगुणड्ढो इच्चाइ जओ नज्जइ सवित्थरं तं सरेह सिद्धतं सविवेसं सरह गुरं(5) जस्स पसाया भवे सो वि गुरुसेवा चेव फुडं आयारंगस्स पढमसुत्तम्मि । इअ नाउं निअगुरुसेवणम्मि कह सीअसि सकन !? ता सोम ! इमं जाणिअ गुरुणो आराहणं अइगरिहूं। इह-परलोअसिरीणं कारणमिणमो विआण तुमं रुट्ठस्स तिहुआण]स्स वि दुग्गइगमणं न होइ ते जीव ! । तुट्टे वि तिहु[अ]णे लहसि नेव कइयावि सुगइपहं । जइ ते रुट्ठो अप्पा तो तं दुग्गइपहं धुवं नेइ । अह तुट्ठो सो कहमवि परमपयं पि हु सुहं नेइ जइ तुह गुणरागाउ(ओ) संथुणइ नमसई इहं लोओ। न य तुज्झणुरागाओ कह तम्मि तुमं वहसि रागं? जइ वि न कीरइ रोसो कह रागो तत्थ कीरए जीव ! ? । जो लेइ त(तु)ह गुणे पर-गुणिक्कबद्धायरो धिट्ठो जो गिन्हइ तुह दोसे दुहजणए दोसगहणतल्लिच्छो । जइ कुणसि नेव रागं कह रोसो जुज्जए तत्थ ?
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