SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 19 अज्ञातकर्तृक चतुर्विंशतिजिननमस्कार - काव्यो - विजयशीलचन्द्रसूरि मध्यकालना जैन मुनिओए काव्योना अने छंदोना केटकेटला प्रकारो पर सर्जन कर्यु छे ! जेम जेम हस्तप्रतिओ उकेलाती जाय छे, तेम तेम आ सर्जनो प्रकाशमां आवतां जाय छे. अहीं एक नानी परंतु जुदी ज भातनी संस्कृत रचना प्रस्तुत छ : चतुर्विंशतिजिननमस्कार. "चोवीश तीर्थंकर" ए जैन परिभाषानो शब्दगुच्छ छे. जैन धर्म अनुसार, ऋषभदेवथी महावीर-वर्धमान स्वामी सुधीना चोवीश धर्मप्रवर्तक तीर्थंकरो थया छे; तेमनी स्तुतिनां आ काव्यो छे. २४ तीर्थंकरोनी स्तुति करतां संस्कृत काव्यो, स्तोत्रो तो असंख्य उपलब्ध छे : प्रकाशित तेमज अप्रकाशित. पण अहीं प्रकाशित थतुं स्तोत्र तेना छंदने कारणे ध्यानपात्र बने तेवू छे. प्राकृत भाषाओमां ज मुख्यत्वे प्रयोजाता 'वस्तु' छंदमां (मात्रामेळ) संस्कृत पद्य भाग्ये ज रचाएलां जोवा मळे छे. जे मळे ते पण एकलदोकल ; एक सामट जथ्थामां नहीं ज. मारी जाण मुजब (भूलचुक लेवीदेवी) आ छंदमां, एकी साथे, २४ पद्यो, एक सळंग रचनारूपे मळ्यां ते विरल गणाय तेम छे. आ स्तोत्रना कर्ता अने तेनो रचना-समय प्राप्त नथी थता, परंतु छंदनी प्रयोगरीति उपरथी ते १७मा शतकनी अने कोई विद्वान् जैन मुनिनी रचना होवानुं अनुमान थाय छे. आ स्तोत्रनी मुख्य विशेषता, तेमां प्रयोजवामां आवेलो यमक अलंकार छे. शृंखलायमक चोवीशेय पद्योमा अखंड जोई शकाय. प्रथम पद्यनो छेल्लो शब्द ते ज पछीना पद्यनो प्रथम शब्द होय ते शृंखलायमक. अने वधुमां दरेक पद्यनी २३-४-५ पंक्तिओमां पण आ ज शृंखलायमक जळवायो छे : दरेक पंक्तिनो अंतिम शब्दांश ते पछीनी पंक्तिनो प्रथम अंश बने छे. आ अतिकठिन लागती योजना पण कवि एकदम अनायास-सहजतापूर्वक अने काव्यनी मधुरता तथा प्रासादिकतानी मावजत करवा साथे करी शक्या छे, ते अद्भुत लागे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520513
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages66
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy