Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 13
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
॥३८॥
इअ सुहिओ वि हु तं कुण जीव ! सुहकारणं वरचरितं । मा कलिकालालंबण-विमोहिओ चयसु सच्चरणं केवलकद्वेण धुवं न सिज्झए वरचरित्तपब्भट्ठो । कट्ठरहिउ(ओ)वि सुज्झाणसु(स)हिओ वि जाइ सिवं अज्ज वि जिणधम्माओ भवम्मि बीयम्मि सिज्जई जीवो । अविराहिअसामन्नो जहन्नओ अट्ठमभवम्मि ता जीव ! कट्ठसझं जइधम्मं तरसि नेव मा कुणसु । किं न कुणसि सुहसज्झं उवसमरससीलणं चरणं नहि कट्ठाओ सिद्धा विसिट्ठकाले वि किंतु सच्चरणा । ता तं करेसु सम्मं कमेण पाविहिसि सिवसम्म जं पुव्वं पि [हु] जीवा कमेण पत्ता सिवं चरित्ताओ। आइजिणेसरपमुहा ता तम्मि कमेण सिज्झिहिसि जो महरिसिअणुचिन्नो संपइ सो दुक्करो जइ पह(पहो) ता । अणुमोअसु गुणनिवहं तेसिं चिअ भत्तिगयचित्तो वसइ गिरिनिगुंजे भीसणे वा मसाणे वणविडवितले वा सुन्नगारे चरन्ते । हरि-करिपभिईणं भेरवाणं अभीओ सुरगिरिथिरचित्तो झाणसंताणलीणो जत्थेव सूरो समुवेइ अत्थं तत्थेव झाणं धरई पसत्थं । वोसट्टकाओ भय-संगमुक्को, रउद्द खुद्देहिं अखोहणिज्जो एसइ उज्झियधम्मं अंतं पंतं च सीअलं लुक्खं । अक्कोसिओ हओ वा अद्दीणविदाणमुहकमलो
॥३९।।
॥४०॥
॥४१॥
॥४२॥
॥४३॥
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