Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 13
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 15
________________ २०४ [सुन्नहरे सुन्नयरं . जिए जियं च तिहुयणं सयलं । पिच्छायाले जाणह कत्थ य ठाणट्ठिओ दूओ ॥] अप्पा पवेसयाले पुच्छड् जीवेसु संठिओ कज्जं । सहलं तस्स निरुत्तं सुन्ने सुन्नं गओ जीवो ॥८८॥ [धम्मत्थकाममोक्खं कहियं गाहेहिं चउविह(ह) नाणं । ज्झाणं तिविहपयारं निद्दिटुं जोइविंदेण ॥ परमत्थेण य भणियं नाणं कामरू(रु)यपीढि जोइणिहिं । सव्वं चिय लोइ दिढं सव्वं चिय जोइसारो य ॥ इत्थं उवएसनिरुत्तं जोइणि जोइंदकहियसंसाओ । सव्वं नाणपहाणं गाहापंचासियासव्वं ॥ जो पढइ जो य निसुणइ जोइणिनाणं च तिहुयणे सयले । सो पावइ निव्वाणं लहइ जसं तिहुयणे सयले ॥] इय कामरूपसंठिय - ज्झाणं नाणं तिलोयसारयरं । भावियजणस्स दिज्जइ मा दिज्जइ भावहीणम्मि ॥८९॥ इति कामरूपपंचासिका समाप्तः ॥ शुभं भवतु कल्याणमस्तु । ૨૦૮ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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